※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

शीघ्र कल्याण कैसे हो ? -3-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, अमावस्या  श्राद्ध, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
आगे की पन्क्तिओ में मै अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार जो निवेदन करुगा, उससे आपको निश्चय हो सकेगा कि स्वल्प काल में हि अत्याधिक लाभ किस प्रकार लिया जा सकता है |

सबसे पहले गायत्री के जप ही विचार किया जाता है | मन्त्र का जोर से उच्चारण करके जप करने पर जो फल मिलता है उससे दस गुना अधिक फल उपाशु अर्थात जिह्वा से किये जाने वाले जप से प्राप्त होता है | मानसिक जप का फल उपाशु से दसगुना तथा साधारण जप से सौगुना अधिक होता है (मनु० २|८५) | इससे यही सिद्ध होता है की मनुष्य सौ वर्षो में साधारण  जप से जो फल प्राप्त कर सकता है, वही फल मानसिक जप द्वारा एक ही वर्ष में प्राप्त किया जा सकता है, फिर वही भजन यदि निष्काम और गुप्तरीती से किया जाये तो यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा की सौ वर्षो में जो फल नहीं हो सकता वह छ: मॉस में ही प्राप्त हो सकता है | अश्वमेघ पर्वगत उत्तरगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति  कहा है की ‘जो पुरुष दिन-रात तत्पर होकर विज्ञान-आनंदघन के स्वरुप का चिंतन करता है वह शीघ्र ही पवित्र होकर परम पद को प्राप्त हो जाता है |’  यह कौन नहीं जानता की ध्रुवजी केवल साढ़े पांच महीनो में ही भगवदर्शन का अलभ्य लाभ उठाकर  कृतकृत्य हो गए थे | मित्रो ! निश्चय रखिये की यदि वैसी तत्परता के साथ लग जाये तो इस समय हम मनुष्य-जन्म का लाभ केवल पांच ही दिनों में प्राप्त कर सकते है | पर शोक ! भगवान का चिंतन कौन करते है ? चिंतन तो करते है विषयों का ! ऐसा करने को तो भगवान मिथ्याचार बतलाते है |

‘जो मूढ़-बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियो को हठ से रोक कर इन्द्रियों के भोगों को मन से चिंतन करता रहता है, वह  मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहलाता है |’ (गीता ३|६)|…. शेष अगले ब्लॉग में.       
 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!