|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन शुक्ल, द्वितीया, रविवार , वि० स० २०७०
अब गीता के सम्बन्ध में
विचार किया जाता है | एक भाई गीता का आघोपांन्त पाठ करता है, पर उसका अर्थ और भाव
कुछ भी नहीं समझता | पाठ के समय उसका मन भी संसार में चला जाता है | संकल्पों की
अधिकता के कारण उसे यह भी ज्ञान नहीं की मैं किस अध्याय और किस श्लोक का पाठ कर
रहा हूँ | उसके लिए यह कार्य एक प्रकार से बेगार-सा है | पर बेगार है भगवान की,
इसलिए वह व्यर्थ नहीं जा सकती |
दूसरा भाई प्रत्येक श्लोक
का अर्थ समझकर प्रेमपूर्वक पाठ करता है | तत्व और रहस्य को समझकर प्रेमपूर्वक पाठ
करता है | तत्व और रहस्य को समझकर पाठ करने से केवल एक ही श्लोक के पाठ से जो फल
मिलता है वह पुरे सात सौ श्लोको के साधारण पाठ से भी नही मिलता | एक साधक पूर्वापर
ध्यान देकर सारी गीता का पाठ करता है, पर आचरण में एक बात भी नहीं लाता | वह श्लोक
पढ़ लेता है –
देवद्विज्
गुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् |
ब्रह्मचर्यंहिसा च शारीरं
तप उच्यते || (गीता १७ |१४)
वह समझता है की ‘देवता, ब्राह्मण,
गुरु और ज्ञानीजनो का पूजन, शुचिता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर सम्बन्धी
तप कहलाता है’ , पर उसका यह केवल समझना मात्र ही है, जबतक की वह अपने जीवन में
वैसा व्यवहार नहीं करता | दूसरा भाई, केवल
एक ही श्लोक को पढता है, पर उसे अक्षरश: कार्यान्वित कर देता है | ऐसी
अवस्था में कहना पड़ेगा की आचरण में लानेवाला साधक अर्थ के जानने वाले से
सात सौ गुना तथा बेगारी वाले से चार लाख नब्बे हज़ार से भी अ धिक गुना लाभ उठाने
वाला है | अन्तरं महदन्तरमं ! दिन-रात का अन्तर प्रयत्क्ष दिख रहा है | अर्थ सहित
पाठ करने वाला जो लाभ दो वर्षो में नहीं उठा सकता, धारण करने वाला एक ही दिन में
उससे कही अधिक लाभ उठा सकता है |…. शेष
अगले ब्लॉग में.
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!