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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन शुक्ल, द्वादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे ... अब यह समझना चाहिये की दया किसको कहते है ।
‘किसी भी दुखी, आर्तप्राणी को देखकर उसके दुःख एवं आर्तता की निवृति के लिए
अन्त:करण में जो द्रवतायुक्त भाव पैदा होता है उसी का नाम दया है ।’ परमेश्वर की
यह दया सब जीवों पर समानभाव से सदा सर्वदा अपार है । जीव कितना भी परमात्मा के
विपरीत आचरण करे, परन्तु परमेश्वर उसो सदा ही दया की दृष्टी से देखते है । इसके
उपयुक्त हमे संसार में कोई उदहारण नहीं मिलता । माता का उदहारण दिया जाता है, वह
कुछ अंश में ठीक भी है । बालक बहुत कुपात्र और नीचवृति वाला है, नित्य अपनी माता
को सताता है, गाली देता है, ऐसा होने पर भी माता बालक के मंगल की ही कामना करती
है, कभी उसका पतन या नाश नहीं चाहती । यह उसकी दया है, परन्तु भगवान की दया को
समझने के लिए यह दृष्टान्त सर्वथा अपर्याप्त है । ऐसा भी देखा जाता है की विशेष
तंग करने पर दुःख: सहने में असमर्थ होने के कारण स्वार्थवश माता भी बालक को त्याग
देती है और कभी-कभी उसके अनिष्ट की इच्छा भी
कर सकती है, परन्तु परम पिता परमेश्वर के कोई कितना भी विरुद्ध आचरण क्यों
न करे, वह कभी न तो उसका त्याग ही करते है और न अनिष्ट ही चाहते है । यह उनकी परम
दयालुता का निदर्शन है ।
विपरीत आचरण करने वाले को भगवान जो दण्ड देते है वह भी उनकी
परम दया है । बालक के अनुचित आचरण करने पर जैसे गुरु उसके हित के लिए एवं उसे
दुराचार से हटाने के लिए दण्ड देता है अथवा जैसे चोरी करने वाली अथवा डाकाडालने
वाली प्रजा को न्यायकारी राजा जो उचित दण्ड देता है, वह गुरु और राजा की दया ही
समझी जाती है वैसे ही परमात्मा रूप गुरु के किये हुए दण्ड-विधान को भी परम दया
समझनी चाहिये । यह उदहारण भी पर्याप्त नहीं है । गुरु तथा राजा से भूल भी हो सकती
है, परन्तु किसी अन्यकारण से भी वे प्रमादवश दण्ड दे देते है, परन्तु ईश्वर का
दण्ड-विधान तो केवल दया के कारण ही होता है ।… शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!