।।
श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, नवमी, सोमवार, वि० स० २०७०
संध्या-गायत्री का महत्व -८-
गत ब्लॉग से
आगे.......महाभारत
के आदिपर्व में जरत्कारू ऋषि की कथा आती है । वे बड़े भरी
तपस्वी और मनस्वी थे ।
उन्होंने सर्पराज वासुकी की बहिन अपने ही नाम की नागकन्या से विवाह किया । विवाह के समय
उन्होंने कन्या से यह शर्त की थी की यदि तुम मेरा कोई भी अप्रिय कार्य करोगी तो
में उसी क्षण तुम्हारा परित्याग कर दूंगा । एक बार की
बात है, ऋषि अपनी धर्मपत्नी की गोद में सिर रखे लेट हुए
थे की उनकी आँख लग गयी ।
देखते-देखते सूर्यास्त का समय हो आया । किन्तु ऋषि जागे नहीं, वे निंद्रा
में थे ।
ऋषि पत्नी से सोचा की ऋषि को जगाती हूँ तो ये नाराज़ होकर मेरा
परित्याग कर देंगे और यदि नहीं जगाती हूँ तो संध्या वे वेला चली जाती है और ऋषि के धर्मका लोप हो
जाता है ।
धर्मप्राणा
ऋषि-पत्नी
से अंत में यही निर्णय किया की पतिदेव मेरा त्याग भले ही कर दे, परन्तु उनके धर्म
की रक्षा मुझे अवश्य करनी चाहिये ।
यही सोच कर उन्होंने पति को जगा दिया । ऋषि ने अपनी इच्छा के विरुद्ध जगाये
जाने पर रोष प्रगट किया और अपनी पूर्व प्रतिज्ञा का स्मरण दिलाकर पत्नी को छोड़
देने पर ऊतारू हो गए ।
जगाने का कारण
बताने पर ऋषि ने कहा की ‘हे मुग्धे ! तुमने इतने दिन मेरे साथ रह कर भी मेरे प्रभाव को
नहीं जाना । मैंने आज तक कभी संध्या
की वेला का अतिक्रमण नहीं किया । फिर क्या आज सूर्य
भगवान् मेरी अर्ध्य लिए बिना अस्त हो सकते थे क्या ? कभी नहीं । सच्च है, जिस भक्त की
उपासना में इतनी दृढ निष्ठा होती है, सूर्य भगवान् उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई
कार्य नहीं कर सकते । हठीले भक्तो के लिए
भगवान् को अपने नियम भी तोड़ने पड़ते है ।
अंत
में हम गायत्री के सम्बन्ध में कुछ निवेदन कर अपने लेख को समाप्त करते है । संध्या का प्रधान
अंग गायत्री-जप ही है ।गायत्री
को हमारे शास्त्रों में वेदमाता कहा गया है । गायत्री के महिमा
चारो ही वेद गाते है ।
जो फल चारो
वेद के अध्ययन से होता है वह एकमात्र व्यहतिपुर्वक गायत्री मन्त्र के जप से
हो सकता है । इसलिए गायत्री-जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा गई गयी है ।
भगवान मनु कहते है की
‘जो पुरुष प्रतिदिन आलस्य का त्याग करके
तीन वर्ष तक गायत्री का जप करता है वह मृत्यु के बाद वायु रूप होता है और उसके बाद
आकाश की तरह व्यापक होकर परब्रह्म को
प्राप्त होता है ।' (२।८२)
जप तीन प्रकार का कहा गया है – (१) वाचिक,
(२) उपांशु एवं (३) मानसिक । एक की अपेक्षा दुसरे को उतरोतर अधिक लाभदायक
माना गया है । अर्थात वाचिक की अपेक्षा उपाशु और उपांशु की
अपेक्षा मानसिक जप अधिक लाभदायक है । जप जितना अधिक हो उतना ही विशेष लाभदायक
होता है ।
महभारत,
शांन्तिपर्व (मोक्ष धर्म पर्व ) के १९९वे तथा २००वे अध्याय में गायत्री की महिमा
का बड़ा सुन्दर उपाख्यान मिलता है । कौशिक गोत्र में उत्पन्न हुआ
पिप्पलाद का पुत्र एक बड़ा तपस्वी धर्मनिष्ठ ब्राह्मण था । वह गायत्री का जप
किया करता था ।
लगातार एक हज़ार वर्ष तक गायत्री का जप कर चुकने पर सावत्री देवी ने उनको साक्षात्
दर्शन देकर कहा
के में तुझपर प्रसन्न हूँ । परन्तु उस समय पिप्पलाद का पुत्र
जप कर रहा था ।
वह चुचाप जप करने में लगा रहा और सावित्री देवी को कुछ भी उत्तर नहीं दिया । वेदमाता सावित्री
देवी उसकी इस जपनिष्ठा पर और भी अधिक प्रसन्न हुई और उसके जप की प्रशंसा करती वही खड़ी रही
। जिसके साधन में ऐसी दृढ निष्ठा होती है
की साध्य चाहे भले ही छुट जाये पर साधन नहीं नहीं छुटना चाहिये, उनसे साधन तो
छूटता ही नहीं, साध्य भी श्रधा और प्रेमके कारण उनके पीछे-पीछे उनके इशारे पर
नाचता रहता है । साधननिष्ठा
की ऐसी महिमा है ।
जप की संख्या पूरी होने पर वह धर्मात्मा ब्राह्मण खड़ा हुआ और देवी के चरणों में
गिरकर उनसे यह प्रार्थना करने लगा की ‘यदि आप मुझ पर
प्रसन्न है तो कृपा करके मुझे यह वरदान दीजिये की मेरा मन निरंतर जप में लगा रहे
और जप करने की मेरी इच्छा उत्तरोतर बढती रहे । भगवती
उस ब्राह्मण के निष्काम भाव को देख कर बड़ी प्रसन्न हुई और ‘तथास्तु’ कहकर
अंतर्ध्यान हो गयी । …शेष अगले
ब्लॉग में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!