※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

संध्या-गायत्री का महत्व -७-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, अष्टमी, रविवार, वि० स० २०७०

 
संध्या-गायत्री का महत्व --

                    गत ब्लॉग से आगे.......प्रात:संध्या के लिए जो बात कही गयी है, सांयसंध्या के लिए उससे विपरीत बात समझनी चाहिये अर्थात सांयसंध्या उत्तम वह कहलाती है, जो सूर्य के रहते की जाय; मध्यम वह है, जो सूर्यास्त होने पर की जाये और अधम वह है, जो तारो के दिखायी देने पर की जाये कारण यह है की अपने पूज्य पुरुष के विदा होते समय पहले ही से सब काम छोड़ कर जो उनके साथ-साथ स्टेशन पहुचता है, उन्हें आराम से गाडी पर बिठाने की व्यवस्था कर देता है और गाडी छुटने पर हाथ जोड़े हुए प्लेटफार्म पर खड़ा खड़ा प्रेम से उनकी और ताकता रहता है और गाडी के आँखों से औझल हो जाने पर ही स्टेशन से लौटता है, वही मनुष्य उनका सबसे अधिक सम्मान करता है और प्रेम-पात्र बनता है जो मनुष्य ठीक गाडी के छुटने के समय हाफता हुआ स्टेशन पर पहुचता है और चलते-चलते दूर से अतिथि के दर्शन कर पाता है वह निश्चय ही अतिथि की द्रष्टी में उतना प्रेमी नहीं ठहरता, यदपि उसके प्रेम से भी महानुभाव अतिथि प्रसन्न ही होते है और उसके उपर प्रेमभरी दृष्टी रखते है उससे भी नीचे दर्जे का प्रेमी वह समझा जाता है, जो अतिथि के चले जाने पर पीछे से स्टेशन पहुचता है और फिर पत्र द्वारा अपने देरी से पहुचने की सूचना देता है और क्षमा-याचना करता है महानुभाव अतिथि उसके भी अतिथिये  को मान लेते है और उस पर प्रसन्न ही होते है
 

                   यहाँ यह नहीं मानना चाहिये की भगवान् भी साधारण मनुष्यों की भांति राग-द्वेष से युक्त है, वे पूजा करने वाले पर प्रसन्न होते है और न करने वाले पर नाराज़ होते है या उनका अहित करते है भगवान की सामान्य कृपा तो सब पर समानरूप से रहती है सूर्यनारायण अपनी उपासना न करने वालो को भी उतना ही ताप और प्रकाश देते है, जितना वे उपासना करने वालो को देते है उसमे न्युनाधिकता नहीं होती हां जो लोग उनसे विशेष लाभ लेना उठाना  चाहते है, जीवन-मरण के चक्कर से छुटना चाहते है, उनके लिए तो उपासना की आवस्यकता है ही और उनमे आदर और प्रेम की दृष्टी से तारतम्य भी होता ही है भगवान् ने गीता में कहा है  - ‘में सब भूतो में समभाव से व्यापक हु, न मेरा कोई  मेरा अप्रिय है, न प्रिय है; परत्नु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते है, वे मुझमे है और में भी उनमे प्रत्यक्ष प्रगट हु ’ (गीता ९ २९)
 

         उपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है की संध्या के सम्बन्ध में पहली बात तो यह है की उसे नित्य नियमपूर्वक किया जाये काल का लोप हो जाये तो कोई बात नहीं किन्तु कर्म का लोप न हो इस प्रकार संध्या करने वाला भी न करने वाला भी न करनेवाले से श्रेष्ठ है दूसरी बात है यह है की जहा तक संभव हो, तीनो काल की संध्या ठीक समय पर की जाये अर्थात प्रात: संध्या सूर्योदय से पूर्व और सांय:संध्या सूर्यास्त से पूर्व की जाये उअर मध्यान:संध्या ठीक दोपहर के समय की जाये समय की पाबन्दी रखने से नियम की पाबंदी तो अपने-आप हो जाएगी इसलिए इस प्रकार ठीक समय पर संध्या करने वाला पूर्वोक्त की अपेक्षा श्रेष्ठ है तीसरी बात है की तीनो काल की अथवा दो काल की संध्या नियमपूर्वक और समय पर तो हो ही, साथ ही प्रेमपूर्वक एवं आदर भाव से हो तो और भी उत्तम है किसी कार्य में प्रेम और आदरबुद्धि होने से वह अपने-आप ठीक समय और नियम पूर्वक होने लगेगा जो लोग इस प्रकार तीनो बात का ध्यान रखते हुए श्रधा-प्रेम-पूर्वक भगवान् सूर्यनारायण की जीवन भर उपासना करेंगे, उनकी मृत्यु निश्चित है शेष अगले ब्लॉग में.

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!