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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०
संध्या-गायत्री का महत्व -६-
गत ब्लॉग से
आगे.......जब
कोई हमारे पूज्य महापुरुष हमारे नगर में आते है और उसकी सूचना हमे पहले से मिली
हुई रहती है तो हम उनका स्वागत करने के लिए अर्घ्य, चन्दन, फूल, माला आदि
पूजा की सामग्री लेकर पहले से ही स्टेशन पर पहुचँ जाते है, उत्सुकता पूर्वक
उनकी बात जोहते है और आते ही उनका बड़ी आवभगत एवं प्रेम के साथ स्वागत करते है । हमारे इस व्यवहार
से उन आगंतुक महापुरुष को बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि हम निष्काम भाव से अपना
कर्तव्य समझकर उनका उनका स्वागत करते है तो वे हमारे इस प्रेम के आभारी बन जाते है
और चाहते है की किस प्रकार बदले में वे हमारी कोई सेवा करे । हम यह भी देखते
है कि कुछ लोग अपने पूज्य पुरुष के आगमन की सूचना होने पर भी उनके स्वागत के लिए
समय पर स्टेशन नहीं पहुच पाते और जब वे गाडी से उतरकर प्लेटफार्म पर पहुच जाते है
तब दौड़े हुए आते है और देर के लिए क्षमा-याचना करते हुए उनकी पूजा करते है । और कुछ इतने आलसी
होते है की जब हमारे पूज्य पुरुष अपने डेरे पर पहुच जाते है और अपने कार्य में लग
जाते है, तब वे धीरे-धीरे फुरसत से अपने और सब काम निपटाकर आते है और उन आगंतुक
महानुभाव की पूजा करते है । वे महानुभाव तो तीनो प्रकार के
स्वागत करने वालो की पूजा से प्रसन्न होते है और उनका उपकार मानते है । पूजा न करने वालो
की अपेक्षा देर-सबेर करने वाले भी अच्छे है; किन्तु दर्जे का फर्क तो रहता ही है । जो जितनी तत्परता, लगन, प्रेम एवं आदर बुद्धि से पूजा करते है उनकी पूजा उतनी ही महत्व की
और मूल्यवान होती है और पूजा ग्रहण करने वालो को उससे उतनी ही प्रसन्नता होती है ।
उपर
जो बात आगंन्तुक महापुरुष की पूजा के सम्बन्ध में कही गयी है । वही बात संध्या
के सम्बन्ध में समझना चाहिये ।
भगवान सूर्यनारायण प्रतिदिन सबेरे
हमारे इस भूमण्डल पर महापुरुष की भाँती पधारते है; उनसे बढकर हमारा पूज्यपात्र और और कौन होगा ।
अत: हमे चाहिये की हम ब्रह्म:मुहूर्त में उठकर शौच-स्नानादि से निवृत होकर शुद्ध-वस्त्र पहनकर उनका स्वागत करने के लिए उनके आगमन से पूर्व ही तैयार
हो जाये और आते ही बड़े प्रेम से चन्दन-पुष्प आदि से युक्त शुद्ध ताजे जल से उन्हें अर्ध्य
प्रदान करे, उनकी स्तुति करे, जप करे । भगवान सूर्य को
तीन बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हुए अर्ध्य प्रदान करना, गायत्री मन्त्र
का (जिसमे उन्ही
की परमात्मभाव से स्तुति की गयी है और उनसे बुद्धि को परमात्म सुखी करने की
प्रार्थना की गयी है ), जप करना और खड़े
होकर उनका उपस्थान करना, स्तुति करना – यही संध्योपासना के मुख्य अंग है; शेष कर्म इन्ही के
अंगभूत एवं सहायक है ।
जो लोग सूर्योदय के समय संध्या करने बैठते है वे एक प्रकार से अतिथि के स्टेशन
पहुच जाने और गाडी से उतर जाने पर उनकी पूजा करने दौड़ते है और जो लोग सूर्योदय हो
जाने के बाद फुर्सत से अन्य आवश्यक कार्यो से निवृत होकर संध्या करने बैठते है, वे
मानो अतिथि के अपने डेरे पर पहुच जाने पर धीरे-धीरे उनका स्वागत करने पहुचते है ।
जो लोग संध्योपासना करते ही नहीं, उनकी
अपेक्षा तो वे भी अच्छे है जो देर-सबेर, कुछ भी खाने के पूर्व संध्या कर लेते है ।उनके द्वारा कर्म का अनुष्ठान तो हो ही
जाता है और इस प्रकार शास्त्र की आज्ञा का निर्वाह हो जाता है । वे कर्मलोप के प्रायश्चित के भागी नहीं
होते ।उनकी अपेक्षा वे
अच्छे है, जो प्रात:काल में तारो के लुप्त हो जाने पर संध्या प्रारम्भ करते है । और
उनसे भी वे श्रेष्ठ वे है, जो उषाकाल में ही तारे रहते संध्या करने बैठ जाते है,
सूर्योदय होने तक खड़े होकर गायत्री-मन्त्र का जप करते है और इस प्रकार अपने पूज्य आगंतुक महापुरुष की
प्रतीक्षा, उन्ही के चिंतन में उतना समय व्यतीत करते है और उनका पदार्पण – उनका दर्शन होते
ही जप बंद कर उनकी स्तुति – उनका उपस्थान करते है । इसी बात को लक्ष्य में
रखकर संध्या के उत्तम, मध्यम और अधम – तीन भेद किये गए है ।…शेष अगले
ब्लॉग में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!