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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, षष्ठी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे.......संध्या की हमारे शास्त्रों ने बड़ी महिमा गाई
है ।
वेदों में कहा है – अर्थात ‘उदय
और अस्त होते हुए सूर्य की उपासना करने वाला विद्वान ब्राह्मण सब प्रकार के कल्याण
को प्राप्त करता है ।’
(तै० आ० प्र० २ अ० २)
महर्षि
याज्ञवल्क्य कहते है – ‘दिन या
रात्रि के समय अनजान में जो पाप बन जाता है, वह सारा ही तीनो काल की संध्या करने
से नष्ट हो जाता है ।’
(३ ।३०८)
महर्षि
कात्यायन का वचन है – ‘जो प्रतिदिन स्नान करता है तथा
कभी संध्या-कर्म का लोप नहीं करता, दोष उसके पास भी नहीं फटकते – जैसे गरुड़ जी के
पास सर्प नहीं जाते ।’
(११ ।१६)
समय की गति सूर्य के द्वारा नियमित
होती है ।
सूर्य भगवान् जब उदय होते है, तब दिन का प्रारम्भ तथा रात्री का शेष होता है; इसको
प्रात:काल भी कहते है ।
जब वे आकाश के शिखर पर आरूढ़ होते है, उस समय को दिन का मध्य अथवा मध्यान कहते है
और जब वे अस्तांचल को जाते है, तब दिन का शेष और रात्रि का प्रारंभ होता है । इसे
सायकाल: भी कहते है ।
ये तीन काल उपासना के मुख्य काल माने गए है । यो तो जीवन का प्रत्येक
क्षण उपासनामय होना चाहिए, परन्तु इन तीन काल में तो भगवान् की उपसना अत्यंत
नितान्त अवश्यक बताई गयी है ।
इन तीनो समय की उपासना का नाम ही क्रमश:
प्रात:संध्या, मध्यान:संध्या, और साय:संध्या है ।
प्रत्येक
वस्तु की तीन अवस्थाये – उत्पत्ति, पूर्ण विकाश और विनाश । जीवन की भी तीन
दशाये होती है जन्म, पूर्ण युवावस्था, और मृत्यु । हमे इन अवस्थाओ
का स्मरण दिलाने के लिए तथा इस प्रकार अन्दर संसार के प्रति वैराग्य की भावना
जाग्रत करने के लिए ही मानो सूर्य भगवान् प्रतिदिन उदय होने, उन्नति के शिखर पर
आरूढ़ होने और फिर अस्त होने की लीला करते है । भगवान् की इस
त्रिविध लीला के साथ ही हमारे शास्त्रों ने तीन काल की उपासना जोड़ दी है ।
भगवान् सूर्य परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक है, इसलिये वे
सूर्यनारायण कहलाते है । यही नहीं,सर्ग के
आदि में भगवान् नारायण ही सूर्य रूप से प्रगट होते है; इसलिए पंचदेवो में सूर्य की
भी गणना है ।
यों भी वे भगवान् की प्रत्यक्ष दीखने-वाले सारे
देवो में श्रेष्ठ है ।
इसलिए संध्या में सूर्य रूप से ही भगवान् की उपासना की जाती है । उनकी उपासना से
हमारे तेज, बल, आयु एवं नेत्रों की ज्योति की वृद्धि होती है और मरने के समय वे
हमे अपने लोक में से
होकर भगवान् के परमधाम में ले जाते है; क्योकि भगवान् के परमधाम का रास्ता
सूर्यलोक में से होकर ही गया है ।
शास्त्रों में लिखा है की योगीलोग तथा
कर्तव्यरूप से युद्ध में शत्रु के सम्मुख लड़ते हुए प्राण देने वाले क्षत्रिय वीर सूर्यमंडल को भेदकर भगवान्
के धाम को चले जाते है । हमारी आराधना से प्रसन्न
होकर भगवान् सूर्य यदि हमे भी उस लक्ष्य तक पंहुचा दे तो इसमें उनके लिए कौन बड़ी
बात है । भगवान् अपने भक्तो पर सदा ही अनुग्रह
करते आये है ।
हम यदि
जीवनभर नियमपूर्वक श्रद्धा एवं भक्ति
के साथ निष्काम भाव से उनकी आराधना करेंगे, तो क्या वे मरते समय हमारी इतनी भी मदद
नहीं करेगे ? अवश्य करेंगे । भक्तो की रक्षा करना तो भगवान् का विरद
ही ठहरा । अत: जो लोग आदरपूर्वक तथा नियम से बिना नागा तीनो समय अथवा
कम-से-कम दो समय (प्रात:काल एवं साय:काल) ही भगवान् सूर्य की आराधना करते है,
उन्हें विश्वास करना चाहिये की उनका कल्याण निश्चित है और वे मरते समय भगवान्
सूर्य की कृपा से अवश्य परम गति को प्राप्त होंगे ।
इस
प्रकार युक्ति से भी भगवान् सूर्य की उपासना हमारे लिए अत्यंत कल्याणकरक, थोड़े
परिश्रम के बदले में महान फल देने वाली अत
एव अवश्य कर्तव्य है ।
अत द्विजाति-मात्र को चाहिये की वे लोग नियमपूर्वक त्रिकालसंध्या के रूप में
भगवान् सूर्य की उपासना किया करे और इस प्रकार लोकिक एवं परमार्थिक दोनों प्रकार
से लाभ उठावे ।
आशा है, सभी लोग इस सस्ते सौदे को सहर्ष स्वीकार
करेंगे; इसमें खर्च एक पैसे का भी नहीं है और समय भी बहुत कम लगता है, परन्तु इसका
फल अत्यंत महान है ।इसलिए
सब लोगो को श्रधा, प्रेम एवं लगन के साथ इस कर्म के अनुष्ठान में लग जाना चाहिये । फिर सब प्रकार से
मंगल-ही-मंगल है ।…शेष अगले
ब्लॉग में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!