※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ



   || श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण एकादशी, बुधवार, वि०स० २०७०


श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ
बालकों के चरित्रनिर्माण के लिए आरम्भ से ही उनको ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए, जिसमें उनका चारित्रिक पतन तो हो ही नहीं; प्रत्युत उत्तरोत्तर उन्नति होती रहे | इसके लिए सदाचार की और सर्वकल्याणकारी धर्मकी शिक्षा आवश्यक है | ऐसी सर्वोपयोगी धार्मिक शिक्षा के बिना न तो चरित्रनिर्माण होगा और न देश, जाति एवं समाज का हित करनेवाले बालक ही बनेंगे | इस प्रकार के सदाचार और उदार धर्मकी शिक्षा के लिए हमारे यहाँ बहुत ही उत्तम दो ग्रन्थ हैं—एक हिंदी का श्रीरामचरितमानस और दूसरा संस्कृत का श्रीमद्भगवद्गीता | हमारी भारतीय आर्यसंस्कृति और धर्म की शिक्षा अमृत के तुल्य है | यह शिक्षा इन दोनों ग्रंथों में भरपूर है | जैसे अमृत का पान करनेवाले पर विष का असर नहीं हो सकता, उसी प्रकार इन ग्रंथों के द्वारा भारतीय उदार आर्य हिन्दू-संस्कृति और धार्मिक आदर्श से अनुप्रणित, शिक्षा से शिक्षित और तदनुसार व्यवहार में निपुण होनेपर विदेशी और विधर्मियों की अनेकों प्रकार की शिक्षाओं में जो कही-कहीं विष भरा हुआ है, उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता | अतएव बालकों के लिए श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता के आधार पर आदर्श शिक्षा की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिये | श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता—ये दो ग्रन्थ हमारे साहित्य के भी अनुपम रत्न हैं और विश्वसाहित्य के भी महान आभूषण हैं | संसार के अनुभवी बड़े-बड़े प्रायः सभी विद्वानोंने  इन दोनों ग्रंथों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है | अतः इन दोनों ग्रंथो को बालकों के पाठ्यक्रम में अनिवार्यरूप से रख दिया जाय तो बालकों का सुधार होकर परम हित हो सकता है |
         दुःख और शोक की बात है कि हमारे देश में ऐसे अमूल्य ग्रन्थ-रत्नों के रहते हुए भी बालकों को अत्यन्त हानिकर पुस्तकें पढ़ा-पढ़ाकर उनके मस्तिष्क में व्यर्थ बातें भरी जाती हैं | जब अंग्रेजों का राज्य था, तब तो हमारा कोई उपाय नहीं था | पर अब तो हमारा अपना राज्य है, हमें अपनी इस स्वतंत्रता का विशेष लाभ उठाना चाहिए | जो अश्लीलता और नास्तिकता से भरी हुई सदाचार का नाश करने वाली तथा धर्मविरोधी गंदी पुस्तकें हैं, जिनके अध्ययन से सिवा हानि के कुछ भी लाभ नहीं है, उन पुस्तकों को हटाकर जिनमें राष्ट्र, देश, जाति और समाज की तथा शरीर, मन, बुद्धि और आचार-व्यवहार की उन्नति हो, ऐसे शिक्षाप्रद ग्रन्थ बालकों को पढ़ाने चाहिए | बात बनाने के लिए बहुत लोग हैं, परन्तु बालकों का जिसमें परम हित हो, इस ओर बहुत ही कम लोगों का ध्यान है | किन्हीं-किन्हीं का इस ओर ध्यान है भी तो परिश्रमशील और विद्वान् न होने के कारण उनके भाव उनके मनमें ही रह जाते हैं | इस कारण हमारे बालक उस लाभ से वंचित ही रह जाते हैं | कितने ही शिक्षित, सदाचारी, अच्छे विद्वान भी हैं, किन्तु वे मान-बड़ाई के फंदे में फँसकर या अन्य प्रकार से विवश अपने भावों का प्रचार नहीं कर सकते और कितने ही अच्छे शिक्षित पुरुष इस विषय में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं !
         अतः अनुभवी विद्वान सदाचारी देशहितैषी पुरुषों तथा शिक्षा-विभाग के संचालकों से और वर्तमान स्वतंत्र सरकार से हमारी सविनय प्रार्थना है कि वे पाठ्य-प्रणाली के सुधार पर शीघ्र ही ध्यान देकर उसका समुचित सुधार करें, जो कि हमारी भावी संतान के जीवन का आधार है | देश की उन्नति और उसका सुधार भविष्य में होनेवाले बालकों पर ही निर्भर है | आज तो हमारे बालक विद्या के नाम पर दिन-प्रतिदिन अविद्या के घोर अन्धकारमय गड्ढे में धकेले जा रहे हैं | बालकों में आलस्य, प्रमाद, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, निर्लज्जता, अकर्मण्यता, विलासिता, उद्दंडता, विषयलोलुपता और नास्तिकता आदि अनेक दुर्गुण बढ़ रहे हैं | दुर्गुणों की इस बढ़ती हुई बाढ़ को यदि शीघ्र नहीं रोका जायगा तो आगे जाकर यह भयंकर रूप धारण कर सकती है | तब इसका रुकना अत्यंत कठिन हो जायगा | इस बाढ़ को रोकने में श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता बहुत सहायक हैं | इसलिए बालकों को इनका अभ्यास अवश्य ही कराना चाहिए |.......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!