※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण द्वादशी, गुरुवार, वि०स० २०७०


**श्रीरामचरितमानस**
गत ब्लॉग से आगे.......बालकों के पाठ्यक्रम में आरम्भ से ही श्रीरामचरितमानस को शामिल कर देना उचित है; जिससे बालकों के जीवनपर मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् के आदर्श चरित्र का प्रभाव पड़े और उनका सुधार हो सके | श्रीरामचरितमानस में सात काण्ड हैं | पहली-दूसरी कक्षा के बालकों को भाषा का ज्ञान नहीं होता, अतः उन्हें मौखिकरूपसे श्रीरामचरितमानस का ज्ञान कराना उत्तम होगा | इसके बादकी तीसरी-चौथी कक्षाओं में बालकाण्ड, पाँचवीं तथा छठी में अयोध्याकाण्ड, सातवीं में अरण्य, किष्किन्धा और सुन्दरकाण्ड, आठवीं में लंकाकाण्ड और नवीं तथा दसवीं कक्षाओं में उत्तरकाण्ड—इस प्रकार विभाग करके सम्पूर्ण रामायण का अर्थसहित अभ्यास करा दिया जाय तो मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्रजी के सम्पूर्ण आदर्श चरित्रों का और हिंदी साहित्य का भी ज्ञान प्रत्येक बालक को सहज ही हो सकता है | यदि इस प्रकार न रुचे तो शिक्षक अपनी इच्छा के अनुसार क्रम रख लें | गीताप्रेस की ओरसे रामायण-परीक्षा-समिति बहुत पहले से ही परीक्षा की पद्धति से रामायण के अध्ययन का प्रचार कर रही है | उसका निर्धारित पाठ्यक्रम भी अच्छा है, उसके अनुसार भी क्रम रखकर बालकों को परीक्षा में सम्मिलित किया जा सकता है, जिससे उनको मानस का ज्ञान हो सके | (परीक्षासमिति के पाठ्यक्रम की विशेष जानकारी के लिए पाठकगण ‘गीता-रामायण-परीक्षा-समिति, ऋषिकेश’ को पत्र लिखकर नियमावली मंगा सकते हैं |) यदि पूरी रामायण न पढ़ा सकें तो सरकार और शिक्षक, जितने अंश को विशेष लाभप्रद समझें, उतने अंश को ही पाठ्यक्रम में शामिल करें, परन्तु रामायण का अध्ययन अवश्य कराना चाहिए; क्योंकि रामायण से हिंदी भाषा का, साहित्यिक शब्दों का और कविता (छन्द-रचना) का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए—इस भारतीय संस्कृति का ज्ञान भी हो जाता है, जो कि विशेष लाभप्रद है | रामचरितमानस के दोहे, चौपाइयाँ, सोरठे, छन्द और श्लोक बड़े ही मधुर, सरल एवं काव्य के अलंकारादि के सभी गुणों से और प्रेमरस से ओत-प्रोत हैं तथा उनका अर्थ और भाव तो इतना लाभदायक है कि जिसकी प्रशंसा करने में हम सर्वथा असमर्थ हैं | यह महान अनुपम ग्रन्थ आर्थिक सामाजिक, भौतिक, नैतिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक आदि सभी दृष्टियों से सब प्रकार से उपादेय है | इसीलिए अनुभवी विद्वानों ने, संतों ने तथा महात्मा गांधीजी ने भी इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है | हिंदी भाषा में ऐसा सब प्रकार से सुन्दर और लाभप्रद ग्रन्थ दूसरा कोई नहीं है—यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगा | अतः सभी भाइयों से हमारी प्रार्थना है कि तन-मन-धन से इसका यथाशक्ति अपने कुटुम्ब, गाँव, जिले और देश में सब प्रकार से प्रचार करें और स्वयं इसका यथाशक्ति अध्ययन करने तथा इसके उपदेशों का पालन करने की भी चेष्टा करें | जो स्वयं पालन करता है, वही प्रचार भी कर सकता है और उसी का असर होता है | जो स्वयं पालन नहीं करता, उसको न तो इसके अमृतमय रहस्य का अनुभव ही हो सकता है, न वह प्रचार ही कर सकता है और न उसका लोगों पर असर ही होता है |.......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!