※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, शुक्रवार, वि०स० २०७०

**श्रीरामचरितमानस**
गत ब्लॉग से आगे.......महात्मा तुलसीदासजी द्वारा वर्णित भगवान् श्रीराम के परम पवित्र, शिक्षाप्रद, अनुपम, अति प्रशंसनीय, अमित प्रभावयुक्त चरित्र का यत्किंचित सारभूत अंश बालकों तथा पाठकों के लाभ के लिए नीचे दिया जा रहा है, जिसका अनुकरण करके लाभ उठाना चाहिए |
           बाल-अवस्था में जब श्रीरामचन्द्रजी महाराज अपने भाइयों के साथ खेला करते थे, उस समय वे अपने भाइयों को जिता दिया करते और स्वयं हार जाया करते थे | अयोध्याकाण्ड में श्रीभरतजी कहते हैं—
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही | हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ||
श्रीतुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका के १०० वें पद में कहा है—
खेलत संग अनुज बालक नित जोगवत अनट अपाउ |
जीति  हारि  चुचुकारि दुलारत देत दिवावत दाउ ||
इस प्रकार श्रीराम अपनी जीत में भी हार मान लेते थे और छोटे भाइयों को प्रसन्न करने के लिए उन्हें प्रेम से दाँव दिया करते थे | मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की ऐसी स्वार्थत्यागपूर्ण पद्धति बालकों को सीखनी चाहिये |
         जब श्रीराम के सामने युवराजपद की प्राप्ति का अवसर आया तो उस समय वे कितनी उदारता का व्यवहार करते हैं | अयोध्याकाण्ड में वे कहते हैं—
जनमे   एक   संग  सब भाई | भोजन सयन केलि लरिकाई ||
करनबेध   उपबीत  बिआहा | संग  संग  सब  भए  उछाहा ||
बिमल बंस यहु अनुचित एकू | बंधु  बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू ||
‘हम सब भाई एक साथ ही जन्मे, खाना-पीना, सोना, खेल-कूद, कर्णवेध, यज्ञोपवीत और विवाह आदि सब उत्सव साथ-साथ ही हुए; किन्तु और भाइयों को छोड़कर अकेले मुझे युवराजपद दिया जाता है, यह निर्मल रघुकुल की कैसी अनुचित रीति है |’
       इससे हमें यह शिक्षा लेनी चाहिये कि हम भाइयों के साथ समान व्यवहार ही करें |
       कैकेयी द्वारा भरत को राजगद्दी और चौदह वर्ष के लिए राम को वनवास देने का वर माँगने पर महाराज दशरथ अत्यन्त व्याकुल हो गये | उस समय कैकेयी की आज्ञा से सुमन्त्र श्रीराम को बुलाने गये और शीघ्र ही उन्हें साथ लेकर आ गये | श्रीराम ने आते ही पिताजी के मुख को मलिन देखकर उनकी व्याकुलता का कारण पूछा | इसपर माता कैकेयी ने आदि से अन्त तक सारी घटना का विवरण बतलाते हुए कहा—‘बेटा ! तुम्हारे पिता तुम्हें वन जाने की आज्ञा देने में संकोच करते हैं, उसी कारण से दुखी हैं; और कोई दुःख का कारण नहीं है | तू माता-पिता का भक्त है, अतः पिताकी आज्ञा का पालन करके पिता को क्लेश से बचा |’ इसपर श्रीराम बोले—‘इसमें तो मेरा सब प्रकार से हित-ही-हित भरा है | वन में मुनियों से मिलना, पिताकी आज्ञा, आपकी सम्मति और प्राणप्यारे भाई भरत को राजगद्दी मिलना—इससे बढ़कर मेरे लिए लाभ की और क्या बात होगी ? ऐसे मौकेपर भी मैं ‘ना’ कर दूँगा तो मूर्खों की श्रेणी में सर्वप्रथम गिना जाऊँगा |’ मानस में भगवान् के वचन इस प्रकार हैं—
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भांति हित मोर |
तेहि  महँ   पितु  आयसु  बहुरि  संमत जननी तोर ||
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू | बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू ||
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा | प्रथम    गनिअमोहि   मूढ़  समाजा ||
          मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का कितना उच्चकोटि का स्वार्थत्यागपूर्ण विनययुक्त आदर्श व्यवहार है | इससे हमें विशेष शिक्षा लेनी चाहिये |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!