|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, शनिवार, वि०स० २०७०
**श्रीरामचरितमानस**
भगवान् श्रीराम वन जाते समय माता
कौसल्या के साथ जो व्यवहार कर रहे हैं, उसमें नीति, धर्म और स्वार्थत्याग का अनुपम
भाव भरा है | माता कौसल्या धर्म-शास्त्र के अनुसार, केवल पिताकी आज्ञा ही हो तो वन
में न जाने के लिए कह रही हैं और यदि पिता दशरथ तथा माता कैकेयी—दोनों की आज्ञा हो
तो वन जाने के लिए आज्ञा दे देती हैं—
जौं
केवल पितु आयसु ताता | तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता ||
जौं
पितु मातु कहेउ बन जाना | तौ कानन सत अवध समाना ||
वनगमन के समय श्रीसीताजी भगवान् रामके
साथ चलने की आज्ञा माँग रही हैं; किन्तु भगवान् ने वन के भयानक कष्टों का खयाल
करके उन्हें अयोध्या में ही रहने के लिए कहा | वे कहते हैं—
आपन
मोर नीक जौं चहहू | बचनु हमार मानि गृह
रहहू ||
आयसु
मोर सासु सेवकाई | सब बिधि भामिनी भवन भलाई ||
x x x
काननु
कठिन भयंकर भारी | घोर घामु हिम बारि बयारी ||
कुस
कंटक मग काँकर नाना | चालब पयादेहिं बिनु पदत्राना ||
इस पतिव्रताशिरोमणि सिताने वन के दुखोसे भी
पतिवियोगजनित दुःख को अधिक मानकर प्रेमपूर्वक वन जानेके लिए ही आग्रह किया | तब
भगवान् श्रीराम ने सोचा—यदि मैं इसे वन में साथ न ले चलूँगा तो यह प्राणों का
त्याग कर देगी, किन्तु साथ चलने का आग्रह नहीं छोड़ेगी | यह सोचकर भगवान् ने उन्हें
साथ चलने की आज्ञा दे दी | मानस में वर्णित सीताजी और श्रीराम का यह प्रेमपूर्ण
संवाद आचरण में लाने के लिए ध्यान देने योग्य है |
सीताजी कहती हैं—
ऐसेउ
बचन कठोर सुनि जौं
न हृदय बिलगान |
तौ प्रभु
विषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्राण ||
अस
कहि सीय बिकल भइ भारी | बचन बियोगु न सकी सँभारी ||
जब सीताजी इस प्रकार की अधीर अवस्था हो गयी, तब—
देखि दसा रघुपति जियँ जाना | हठि
राखें नहिं राखिहि प्राना ||
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा | परिहरि सोचु चलहु बन साथा ||
इसी प्रकार भगवान् श्रीराम भाई लक्ष्मण
को भी माता-पिता की सेवा करने के लिए अयोध्या रहने को कहते है—
मातु
पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ |
लहेउ
लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनम जग जायँ ||
अस
जियँ जानि सुनहु सिख भाई | करहु मातु पितु पद सेवकाई ||
भवन
भरतु रिपुसूदन
नाहीं | राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं ||
x x x
रहहु
तात असि नीति बिचारी | सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी ||
x x x
इसपर लक्ष्मणजी ने कहा—
दीन्ह
मोहि सिख नीकी गोसाईं | लागि अगम अपनी कदराईं ||
x x x
मोरें
सबइ एक तुम्ह
स्वामी | दीनबंधु उर अंतरजामी ||
x x x
मन
क्रम बचन चरत रत होई | कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई ||
जब लक्ष्मणजी का ऐसा प्रेमपूर्ण अत्यन्त
आग्रह देखा, तब भगवान् ने लक्ष्मण की प्रसन्नता के लिए माता सुमित्रा की आज्ञा
लेकर साथ चलने की आज्ञा दे दी—
माँगहु
बिदा मातु सन जाई | आवहु बेगि चलहु बन भाई ||
यहाँ भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण दोनों
का स्वार्थत्यागपूर्वक भ्रात्रृ-प्रेम सराहनीय है | उपर्युक्त वनगमन के प्रसंग में
श्रीराम का भ्रात्रृ-प्रेम और माता-पिता की आज्ञा का पालन, राज्यपद-जैसे महान
स्वार्थका त्याग और वनवास-जैसे कष्ट को आनन्द का रूप देना आदि आदर्श व्यवहार हैं |
इनसे बालकों को विशेषरूप से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए |......शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!