※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 3 नवंबर 2013

दीपावली की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण अमावस्या, दीपावली, रविवार, वि०स० २०७०

**श्रीरामचरितमानस**
गत ब्लॉग से आगे.......भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मण के साथ वन में चले गये और पिता दशरथ ने श्रीरामवियोग में प्राणों का परित्याग कर दिया | जब भरतजी ननिहाल से अयोध्या आये, तब वे वहाँ का ऐसा हाल देखकर अत्यन्त दुखित हुए | उन्होंने धैर्यपूर्वक पिताकी और्ध्वदैहिक क्रिया की | तदन्तर माताओं तथा वशिष्ठ आदि गुरुजनों ने राजतिलक के लिए बहुत आग्रह किया, किन्तु भरत जी ने स्वीकार नहीं किया और कहा—
मोहि उपदेसु दीन्ह गुरु  नीका | प्रजा  सचिव  संमत  सबही का ||
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा | अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा ||
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी | सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी ||
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अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू | मोहि  अनुहरत सिखावनु देहू ||
ऊतरु    देउँ    छमब   अपराधू | दुखित दोष गुन गनहिं न साधू ||
पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु |
एहि   तें  जानहु  मोर  हित  कै आपन बड़ काजु ||
          तत्पश्चात भरत मन्त्री, गुरुजन और माताओं के साथ चित्रकूट गये और माताओं के साथ चित्रकूट गये और भरत ने भगवान् श्रीराम से बड़े ही विनीत-भाव से राजतिलक के लिए प्रार्थना की | चित्रकूट में श्रीराम और भरत का जो परस्पर मिलन और वार्तालाप है, वह स्वार्थत्याग-पूर्वक भ्रातृप्रेम का एक उज्जवल उदाहरण है | वे दोनों ही भाई राज्य-पद-जैसे स्वार्थ को एक-दूसरे के लिए त्याग रहे हैं ! श्रीराम-भरत की प्रेममयी मिलनावस्था का वर्णन करते हुए श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं | भूतल परे लकुट की नाईं ||
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बरबस   लिए  उठाइ    उर   लाए   कृपानिधान |
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान ||
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फिर निषादराज ने भगवान् से बतलाया—
नाथ साथ मुनिनाथ  के मातु सकल पुर लोग |
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग ||
तदन्तर, गुरु वसिष्ठ ने भरत-शत्रुघ्न के लिए यह प्रस्ताव रखा—
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई | फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ||
          इसपर श्रीभरत जी बड़े प्रसन्न हुए और बोले—
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता | भे    प्रमोद  परिपूरन गाता ||
कानन करउँ जनम भरि बासू | एहि तें अधिक न मोर सुपासू ||
अंतरजामी  रामु  सिय   तुम्ह   सरबग्य  सुजान |
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ||
भगवान् श्रीराम ने भरतजी से अपनी असमज्जसता व्यक्त करते हुए कहा—
राखेउ रायं सत्य मोहि त्यागी | तनु  परिहरेउ  पेम पन लागी ||
तासु  बचन  मेटत  मन  सोचू | तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ||
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श्रीभरतजी ने राजतिलक के लिए प्रार्थना की—
देव   एक  बिनती  सुनि  मोरी | उचित होइ  तस  करब  बहोरी ||
तिलक समाजु साजि सबु आना | करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना ||
सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ |
फेरिअहिं   बंधु  दोउ   नाथ   चलौं   मैं   साथ ||
         इस प्रकरण से हमें भ्रातृ-प्रेम और स्वार्थत्याग की अपूर्व शिक्षा मिलती है | बालकों को इसे सीखकर लाभ उठाना चाहिए |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!