|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण अमावस्या, दीपावली, रविवार, वि०स० २०७०
**श्रीरामचरितमानस**
गत
ब्लॉग से आगे.......भगवान् श्रीराम सीता और
लक्ष्मण के साथ वन में चले गये और पिता दशरथ ने श्रीरामवियोग में प्राणों का
परित्याग कर दिया | जब भरतजी ननिहाल से अयोध्या आये, तब वे वहाँ का ऐसा हाल देखकर
अत्यन्त दुखित हुए | उन्होंने धैर्यपूर्वक पिताकी और्ध्वदैहिक क्रिया की | तदन्तर
माताओं तथा वशिष्ठ आदि गुरुजनों ने राजतिलक के लिए बहुत आग्रह किया, किन्तु भरत जी
ने स्वीकार नहीं किया और कहा—
मोहि उपदेसु दीन्ह गुरु नीका
| प्रजा सचिव संमत सबही का ||
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा | अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा ||
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी | सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी ||
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अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू | मोहि अनुहरत सिखावनु देहू ||
ऊतरु देउँ छमब अपराधू | दुखित दोष गुन गनहिं न साधू ||
पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु |
एहि तें जानहु
मोर हित कै
आपन बड़ काजु ||
तत्पश्चात भरत मन्त्री, गुरुजन और
माताओं के साथ चित्रकूट गये और माताओं के साथ चित्रकूट गये और भरत ने भगवान्
श्रीराम से बड़े ही विनीत-भाव से राजतिलक के लिए प्रार्थना की | चित्रकूट में
श्रीराम और भरत का जो परस्पर मिलन और वार्तालाप है, वह स्वार्थत्याग-पूर्वक भ्रातृप्रेम
का एक उज्जवल उदाहरण है | वे दोनों ही भाई राज्य-पद-जैसे स्वार्थ को एक-दूसरे के
लिए त्याग रहे हैं ! श्रीराम-भरत की प्रेममयी मिलनावस्था का वर्णन करते हुए
श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं | भूतल परे लकुट की नाईं ||
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बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान |
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान ||
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फिर
निषादराज ने भगवान् से बतलाया—
नाथ साथ मुनिनाथ के मातु
सकल पुर लोग |
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग ||
तदन्तर,
गुरु वसिष्ठ ने भरत-शत्रुघ्न के लिए यह प्रस्ताव रखा—
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई | फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ||
इसपर श्रीभरत जी बड़े प्रसन्न हुए और
बोले—
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता | भे प्रमोद परिपूरन गाता ||
कानन करउँ जनम भरि बासू | एहि तें अधिक न मोर सुपासू ||
अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान
|
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ||
भगवान्
श्रीराम ने भरतजी से अपनी असमज्जसता व्यक्त करते हुए कहा—
राखेउ रायं सत्य मोहि त्यागी | तनु परिहरेउ पेम पन लागी ||
तासु बचन मेटत मन
सोचू | तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ||
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श्रीभरतजी
ने राजतिलक के लिए प्रार्थना की—
देव एक बिनती सुनि
मोरी | उचित होइ तस करब बहोरी ||
तिलक समाजु साजि सबु आना | करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना ||
सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ |
फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ ||
इस प्रकरण से हमें भ्रातृ-प्रेम और
स्वार्थत्याग की अपूर्व शिक्षा मिलती है | बालकों को इसे सीखकर लाभ उठाना चाहिए |.....शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!