※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 4 नवंबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से अनुपम लाभ



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
                                 कार्तिक शुक्ल प्रथम, सोमवार, वि०स० २०७०

**श्रीरामचरितमानस**
गत ब्लॉग से आगे.......भगवान् श्रीराम जब चित्रकूट से पंचवटी पधारे, तब मार्ग में अनेक मुनियों से भेंट हुई | उन मुनियों के साथ भगवान् श्रीराम ने बड़ा ही रहस्यमय, मर्यादा, शिक्षा, नीति, धर्म, दया, प्रेम और विनय से युक्त स्वार्थरहित, अनुकरणीय आदर्श व्यवहार किया |
          अरण्यकाण्ड में भगवान् का अत्रिमुनी के साथ कितना रहस्यपूर्ण संवाद है—
संतत मो पर कृपा करेहू | सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ||
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी | सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ||
जासु कृपा अज सिव सनकादी | चहत सकल परमारथ बादी ||
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे     | दीनबंधु  मृदु  बचन  उचारे ||
       आगे चलकर भगवान् ने मुनियों की हड्डियों के ढेर को देखकर कहा—
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह |
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ||
         सुतीक्ष्ण मुनि से मिलनेपर जब मुनि ने भगवान् से स्तुति-प्रार्थना की, तब—
सुनि मुनि बचन राम मन भाए | बहुरि हरषि उर लाए ||
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही | जो बर मागहु देउँ सो तोही ||
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा | समुझि न परइ झूठ का साचा ||
तुम्हहि नीक लागै रघुराई | सो मोहि देहु दास सुखदाई ||
        जब भगवान् श्रीराम अगस्त्य ऋषि के पास जाने लगे, तब सुतीक्ष्ण जी बोले—
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं | तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ||
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई | लिए संग बिहसे द्वौ भाई ||
         और अगस्त्यमुनि के आश्रम पर पहुँचने पर—
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई | रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ||
x        x        x
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं | तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं ||
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ | ताते तात न कहि समुझायउँ ||
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही | जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ||
            सीताहरण के बाद जटायु के साथ श्रीराम का कृतज्ञता, दया और प्रेम से भरा हुआ जो बर्ताव है, वह बहुत ही प्रशंसनीय और अनुकरणीय है | श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर |
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ||
x        x        x
राम कहा तनु राखहु ताता | मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता ||
जा कर नाम मरत मुख आवा | अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा ||
सो मम लोचन गोचर आगें | राखौं देह नाथ केहि खाँगे ||
जल भरि नयन कहहिं रघुराई | तात कर्म निज तें गति पाई ||
परहित बस जिन्ह के मन माहीं | तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं ||
तनु तजि तात जाहु मम धामा | देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ||
x        x        x
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम |
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ||
कोमल चित अति दीन दयाला | कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ||
गीध अधम खग आमिष भोगी | गति दीन्ही जो जाचत जोगी ||
सुनहु उमा ते लोग अभागी  |  हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ||
|......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!