※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

श्रीरामचरितमानस और श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा से लाभ



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक शुक्ल द्वितीया, मंगलवार, वि०स० २०७०

**श्रीरामचरितमानस**
गत ब्लॉग से आगे.......इसके बाद भगवान् श्रीराम का शबरी के साथ जो प्रेमका बर्ताव है, वह बहुत ही प्रशंसा और आदर के योग्य है | भक्तों के साथ भगवान् कैसा प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं, इस बात को यहाँ के बर्ताव से जानकर हमें भगवान् में अनन्य श्रद्धा और प्रेम करना चाहिये | श्रीगोसाईं जी कहते हैं—
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुं आनि |
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ||
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कह रघुपति सुनु भामिनी बाता | मानउँ एक भगति कर नाता ||
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई | धन बल परिजन गुन चतुराई ||
भगति हीन नर सोहई कैसा | बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ||
          किष्किन्धाकांड में श्रीराम-लक्ष्मण का श्रीहनुमान के साथ मिलन का प्रसंग है, वह एक अद्भुत आदर्श है | उससे हमें भगवान् रामकी विनय, निरभिमानता, कुशलता और प्रेम तथा श्रीहनुमान की श्रद्धा, भक्ति, विनय और प्रेमका पाठ सीखना चाहिए |
         श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ | माथ नाइ पूछत अस भयऊ ||
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा | छत्री रूप फिरहु बन बीरा ||
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की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ | नर नारायण की तुम्ह दोऊ ||
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार |
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ||
          इसपर भगवान् राम ने कहा—
कोसलेस दसरथ के जाए | हम पितु बचन मानि बन आए ||
नाम राम लछिमन दोउ भाई | संग नारि सुकुमारि सुहाई ||
इहाँ हरी निसिचर बैदेही | बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ||
आपन चरित कहा हम गाई | कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ||
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          इसपर श्रीहनुमानजी ने कहा—
मोर न्याउ मैं पूछा साईं | तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ||
तव माया बस फिरउँ भुलाना | ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ||
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान |
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ||
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अस कहि परेउ चरन अकुलाई | निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ||
तब रघुपति उठाइ उर लावा | निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ||
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          तथा भगवान् श्रीराम ने कहा—
समदरसी मोहि कह सब कोऊ | सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ||
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत |
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ||
तदनंतर, सुग्रीव से मित्रता हुई | मित्र के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इस विषय में भगवान् का उपदेश बड़ा अलौकिक है | केवल कथन ही नहीं, कथन के अनुसार उनका व्यवहार भी है | भगवान् सुग्रीव को आश्वासन देते हुए उनसे कहते हैं—
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान |
ब्रह्म रूद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ||
जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी | तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ||
निज दुःख गिरि सम रज करि जाना | मित्रक दुःख रज मेरु समाना ||
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा | गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ||
देत लेत मन संक न धरई | बल अनुमान सदा हित करई ||
बिपति काल कर सतगुन नेहा | श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ||
सखा सोच त्यागहु बल मोरें | सब बिधि घटब काज मैं तोरें ||
         फिर, जब बालि से भेंट हुई, तब उसके साथ भी भगवान् का नीति, धर्म, दया और प्रेम का बड़ा सुन्दर व्यवहार है | इससे तथा बालि के बर्ताव से भी हमें भक्ति के तत्त्व-रहस्यकी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए |
        श्रीरामचरितमानस में बतलाया है—
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा | बोला चितइ राम की ओरा ||
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं | मारेहु मोहि ब्याध की नाईं ||
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा | अवगुन कवन नाथ मोहि मारा ||
         तब श्रीरामचन्द्र जी ने कहा—
अनुज बधू भगिनी सूत नारी | सुनु सठ कन्या सम ए चारी ||
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई | ताहि बधे कछु पाप न होई ||
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना | नारि सिखावन करसि न काना ||
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी | मारा चहसि अधम अभिमानी ||
          तब बालि ने विनय और प्रेमपूर्वक कहा—
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि |
प्रभु अजहूँ मैं पापी अन्तकाल गति तोरि ||
          इसपर भगवान् राम का व्यवहार देखिये—
सुनत राम अति कोमल बानी | बालि सीस परसेउ निज पानी ||
अचल करौं तनु राखहु प्राना |........................................||
          इसपर बालि ने कहा—कृपानिधान भगवन ! मेरी बात सुनिए—
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं | अंत राम कहि आवत नाहीं ||
जासु नाम बल संकर कासी | देत सबहि सम गति अबिनासी ||
मम लोचन गोचर सोई आवा | बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ||
         भगवान् ने यहाँ बालि के नीतियुक्त वचनों को सुनकर नीतियुक्त जवाब दिया तथा फिर श्रद्धा, प्रेम और रहस्ययुक्त तात्त्विक वचनों को सुनकर अपार दया और प्रेम का व्यवहार किया है | ये दोनों ही व्यवहार अलौकिक हैं | इसको देखकर हमलोगों को भगवान् में श्रद्धा-प्रेम करना चाहिए | भगवान् ने बालि-जैसे पापी को भी उत्तम गति दी, भगवान् के ऐसे विरद से हमलोगों को भी आश्वासन मिलता है | अतः कभी निराश नहीं होना चाहिए, वरं भगवत्प्राप्ति के लिए परम उत्साहित होकर भगवान् में प्रेम करना चाहिए |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!