※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 11 नवंबर 2013

गीता और रामायण की शिक्षा से अनुपम लाभ



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक शुक्ल नवमीं, सोमवार, वि०स० २०७०


**श्रीरामचरितमानस**
गत ब्लॉग से आगे.......अपने साथ प्रेम करनेवाले के प्रति श्रीराम किस प्रकार प्रेम करते हैं, यह देखकर हमें केवल भगवान् में ही अनन्य प्रेम करना चाहिए | इस विषय में श्रीसीता जी का प्रेम आदर्श है | सुन्दरकाण्ड में श्रीहनुमान जी श्रीसीताजी से श्रीराम का संवाद सुनाते हुए कहते हैं—
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर |
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ||
तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा | जानत प्रिया एकु मनु मोरा ||
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं | जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ||
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही | मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ||
         भगवान् का कितना उच्चकोटि का प्रेम है | ऐसे प्रेम करनेवाले भगवान् को छोड़कर जो दूसरे को भजते हैं, उनको धिक्कार है |
         चौदह वर्ष की अवधि समाप्त होनेपर भगवान् श्रीराम को भरत की स्मृति हुई, क्योंकि भगवान् के विरह में व्याकुल हुए भरत भगवान् श्रीराम को याद कर रहे थे; अतः श्रीराम भक्त विभीषण के आग्रह करनेपर भी लंका में नहीं गये | उस समय भगवान् राम के हृदय में भरत के प्रति अलौकिक प्रेम दिखाई पड़ता था | लंकाकाण्ड में जब विभीषण ने यह प्रार्थना की कि—
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ | पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ||
तब—
सुनत बचन मृदु दीनदयाला | सजल भए द्वौ नयन बिसाला ||
         फिर भगवान् भरत को याद करते हुए विभीषण से बोले—
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि |
देखौं बेगि सो जतनु करू सखा निहोरउँ तोहि ||
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर |
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ||
        इस प्रकार के उत्कट प्रेमको देखकर स्वाभाविक ही मनुष्य के हृदय में भगवान् से प्रेम करनेका भाव जाग्रत होना चाहिए |
        इसके अनंतर, जो भरतजी की विनयपूर्वक विरह की व्याकुलता है, वह बहुत ही प्रशंसनीय तथा हमलोगों के लिए अनुकरणीय है | उनकी उस दशा को देखकर श्रीहनुमान का शरीर पुलकित हो गया | भरत का भगवान् राम में केवल भ्रात्रृ-प्रेम ही नहीं था, वे भगवद्भाव से भी भावित थे और उनमें भगवान् के विरह की व्याकुलता और भगवान् में श्रद्धा-प्रेम की पराकाष्ठा थी | श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में उनकी उस प्रेमावस्था का वर्णन करते हुए श्रीगोसाईंजी कहते हैं—
रहेउ एक दिन अवधि अधारा | समुझत मन दुख भयउ अपारा ||
कारन कवन नाथ नहिं आयउ | जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ||
अहह धन्य लछिमन बड़भागी | राम पदारबिंदु अनुरागी ||
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत |
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत ||
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात |
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलजात ||
देखत हनुमान अति हरषेउ | पुलक गात लोचन जल बरषेउ ||
          इसके बाद जब हनुमान श्रीराम अयोध्या के निकट पुष्पक विमान पर से भूमि में उतर गये,तब भरत जी वहाँ आये और—
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज | नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ||
परे भूमि नहिं उठत उठाए | बर करि कृपासिंधु उर लाए ||
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े | नव राजीव नयन जल बाढ़े ||
        भरत जी के इस प्रसंग से हमें भगवान् के विरह में व्याकुलता,श्रद्धा, प्रेम, विनय, दैन्य-भाव और निरभिमानता की शिक्षा लेनी चाहिये |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!