|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक शुक्ल नवमीं, सोमवार, वि०स० २०७०
**श्रीरामचरितमानस**
गत ब्लॉग से
आगे.......अपने साथ प्रेम करनेवाले के प्रति
श्रीराम किस प्रकार प्रेम करते हैं, यह देखकर हमें केवल
भगवान् में ही अनन्य प्रेम करना चाहिए | इस विषय में श्रीसीता जी का प्रेम
आदर्श है | सुन्दरकाण्ड में श्रीहनुमान जी श्रीसीताजी से श्रीराम का संवाद सुनाते
हुए कहते हैं—
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर |
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ||
तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा | जानत प्रिया एकु मनु मोरा ||
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं | जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ||
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही | मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ||
भगवान् का कितना उच्चकोटि का प्रेम है |
ऐसे प्रेम करनेवाले भगवान् को छोड़कर जो दूसरे को भजते
हैं, उनको धिक्कार है |
चौदह वर्ष की अवधि समाप्त होनेपर भगवान्
श्रीराम को भरत की स्मृति हुई, क्योंकि भगवान् के विरह में व्याकुल हुए भरत भगवान्
श्रीराम को याद कर रहे थे; अतः श्रीराम भक्त विभीषण के आग्रह करनेपर भी लंका में
नहीं गये | उस समय भगवान् राम के हृदय में भरत के प्रति अलौकिक प्रेम दिखाई पड़ता
था | लंकाकाण्ड में जब विभीषण ने यह प्रार्थना की कि—
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ | पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ||
तब—
सुनत बचन मृदु दीनदयाला | सजल भए द्वौ नयन बिसाला ||
फिर भगवान् भरत को याद करते हुए विभीषण
से बोले—
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि |
देखौं बेगि सो जतनु करू सखा निहोरउँ तोहि ||
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर |
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ||
इस प्रकार के
उत्कट प्रेमको देखकर स्वाभाविक ही मनुष्य के हृदय में भगवान् से प्रेम करनेका भाव
जाग्रत होना चाहिए |
इसके अनंतर, जो भरतजी की विनयपूर्वक विरह
की व्याकुलता है, वह बहुत ही प्रशंसनीय तथा हमलोगों के लिए अनुकरणीय है | उनकी उस
दशा को देखकर श्रीहनुमान का शरीर पुलकित हो गया | भरत का भगवान् राम में केवल
भ्रात्रृ-प्रेम ही नहीं था, वे भगवद्भाव से भी भावित थे और उनमें भगवान् के विरह
की व्याकुलता और भगवान् में श्रद्धा-प्रेम की पराकाष्ठा थी | श्रीरामचरितमानस के
उत्तरकाण्ड में उनकी उस प्रेमावस्था का वर्णन करते हुए श्रीगोसाईंजी कहते हैं—
रहेउ एक दिन अवधि अधारा | समुझत मन दुख भयउ अपारा ||
कारन कवन नाथ नहिं आयउ | जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ||
अहह धन्य लछिमन बड़भागी | राम पदारबिंदु अनुरागी ||
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत |
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत ||
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात |
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलजात ||
देखत हनुमान अति हरषेउ | पुलक गात लोचन जल बरषेउ ||
इसके बाद जब हनुमान श्रीराम अयोध्या के
निकट पुष्पक विमान पर से भूमि में उतर गये,तब भरत जी वहाँ आये और—
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज | नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ||
परे भूमि नहिं उठत उठाए | बर करि कृपासिंधु उर लाए ||
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े | नव राजीव नयन जल बाढ़े ||
भरत जी के इस
प्रसंग से हमें भगवान् के विरह में व्याकुलता,श्रद्धा, प्रेम, विनय, दैन्य-भाव और
निरभिमानता की शिक्षा लेनी चाहिये |......शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!