|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन शुक्ल, अष्टमी, शनिवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे ...दयामय परमात्मा की सब जीवों पर इतनी दया है की सम्पूर्णरूप
से तो उस दयाको मनुष्य समझ ही नहीं सकता | वह अपनी समझके अनुसार अपने ऊपर जितनी
अधिक-से-अधिक दया समझता हैं, वह भी नितान्त अल्प ही होती हैं | मनुष्य ईश्वरदया का
यथार्थ कल्पना ही नहीं कर सकता | भगवान की वह अनन्त दया सबके ऊपर समभाव से गंगाके
प्रवाहकी भाँती नित्य-निरन्तर चारों और से बह रही है | इस दया से जो मनुष्य जितना
लाभ उठाना चाहता है, उतना ही उठा सकता है | खेद की बात है की लोग इस रहस्य को न
जानने के कारण ही दुखी हो रहे है | यह उनकी मूर्खता है | इन लोगो किन वही दशा
समझनी चाहिये, जैसी उस मूर्ख प्यासे मनुष्य की है जो नित्य-निरन्तर शीतल सुमधुर जल
को प्रवाहित करने वाली भगवती गंगा के किनारे पड़ा हो, परन्तु ज्ञान न होने के कारण
जल न ग्रहण कर प्यास के मारे तड़प रहा हों |
ईश्वर की दया अपार है परन्तु जो जितनी मानता है उतनी ही दया
उसको फलती है, इसलिए उस ईश्वर की जितनी अधिक-से-अधिक दया तुम अपने ऊपर समझ सको उतनी
समझनी चाहिये | तुम्हारी कल्पना जितनी अधिक होगी, तुम्हे उतना ही अधिक लाभ होगा |
यद्यपि भगवान की दया का थाह उसी प्रकार किसीको नहीं मिलता, जैसे विमान पर बैठ कर
आकाशमें उड़ने वाले मनुष्य को आकाश का थाह नहीं मिलता, परन्तु इस दया का थोडा-सा
रहस्य जानने पर भी मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है | जैसे अथाह गंगा के प्रवाहमें से
मनुष्य की प्यास बुझानेके लिए एक लोटा गंगाजल ही पर्याप्त है वैसे ही अपार,
अपरिमित दयासागरकी दया के एक कारण से ही मनुष्य की अनन्त-जन्मों की शोकाअग्नि सदा
के लिए शान्त हो जाती है | यह तुलना भी पर्याप्त नहीं है, क्योकि साधारण जलबुद्धि
से पीये हुए गंगाजल के एक लोटे जल से तो मनुष्य की प्यास थोड़ी देर के लिए शान्त
होती है, परन्तु ईश्वर की दया के कण से तो भय, शोक और दुखों की निवृति एवं शान्ति
और परमानन्द की प्राप्ति सदा के लिए हो जाती है | अतएव सबको चाहिये की उस परमेश्वर
के शरण होकर उसकी दया की खोज करे |… शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!