※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

भगवान की दया -१-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आश्विन शुक्ल, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०
 
भगवान की दया  -१-
 
कुछ मित्र मुझे ईश्वर के सद्गुणों के संबंधमें लिखने को कहते है, परन्तु मैं इस विषय में अपने को असमर्थ समझता हूँ, क्योकि ईश्वर के सद्गुणों का कोई पार नहीं है | संसार में जितने उत्तम गुण देखने, सुनने और पढने में आते है, वे सभी परिमित है ससीम है और उस अप्रमेय असीम परमात्मा के एक अंशके द्वारा प्रकाशित हो रहे है | ‘एकाशेन स्थितो जगत्’ (गीता १०|४२) | परमात्मा के गुणों का सम्यक प्रकार से कोई वर्णन कर भी नहीं सकता | वेद-शास्त्र में जो कुछ कहा गया है, वह सर्वदा स्वल्प ही है, एनी गुणों की तो बात ही अल्प रही | उस दयामय की केवल एक दया के विषय में ख्याल किया जाता है तो मुग्ध हो जाना पडता है | अहा ! उसकी असीम दयाकी थाह कौन पा सकता है ? जब एक दया का वर्णन ही मनुष्य के लिए अशक्य है तो सम्पुर्ण सद्गुणों का वर्णन करना असम्भव है | लोग उसे दयासिन्धु कहते है, वेद-शस्त्रों ने भी उनको दया का समुद्र बताया है, परन्तु विचार करने पर प्रतीत होता है की यह उपमा समीचीन नहीं है, यह तो उसकी अपरिमित दया के एक अंशमात्र का ही परिचय है | क्योकि समुद्र परिमित है और सब और से सीमाबद्ध है परन्तु अपरिमेय परमात्मा की दया तो अपार है, उसके साथ अनन्त समुद्रों की तुलना नहीं की जा सकती | अवश्य ही जो उन्हें दयासिन्धु और दयासागर बताते है, मैं उनकी निंदा नहीं करता | कारण संसार में जो बड़ी-बड़ी चीज प्रयत्क्ष देखने में आती है, बड़ों के साथ उसी की तुलना देकर समझया जा सकता है |
जहाँ मन और बुद्धि नहीं पहुच सकी, वहाँ एकबारगी उसका वाणी से तो वर्णन हो ही कैसे सकता है ? तथापि जो कुछ वर्णन किया जाता है सो वाणी से ही किया जाता है, चाहे वह कितना ही क्यों न हों, इसलिए भगवान की दया का जो वर्णन वाणी से किया गया है, वह पर्याप्त नहीं है | ईश्वर की दया उससे बहुत ही अपार है | परमात्मा की दया सम्पूर्ण जीवो पर इतनी अपार है की जो मनुष्य इसके तत्व को समझ जाता है वह भी निर्भय हो जाता है, शोक-मोह से तर जाता है, अपार शान्ति को प्राप्त होता है और वह स्वयं दयामय ही बन जाता है | ऐसे पुरुषों की सम्पूर्ण क्रियाओं में दया भरी रहती है | उसमे किसी की भी हिंसा तो हो ही नहीं सकती | शेष अगले ब्लॉग में ....         
       श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!