※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

भगवान की दया -९-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

कार्तिक कृष्ण, प्रतिपदा, शुक्रवार, वि० स० २०७०


          गत ब्लॉग से आगे ...जब गुरु पुत्र शनडामर्क के द्वारा उत्पन्न की हुई कृत्या ने प्रह्लाद को मारने में असमर्थ होकर शनडामर्क को ही मार डाला, तब दयामय प्रहलाद श्रीभगवान से कहने लगे ‘यदि मैं सर्वगत और अक्षय श्रीविष्णु को शत्रुपक्ष में भी देखता हूँ तो ये पुरोहित जीवित हो जायँ । जो मेरे को मारने के लिए आये, जिन्होंने विष दिया, अग्नि जलायी, जिन दिग्गजों ने रुधा, सर्पों ने काटा, उन सबमे यदि में मित्रभाव से सम हूँ एवं कहीं भी मेरी पापबुद्धि नहीं है तो उस सत्य के प्रभाव से इसी समय पुरोहित जीवित हो जायँ ।’ (विष्णु० १।१८।४१-४३) उसके बाद वे जी उठे ।

          साधान-कालमें भगवान अपने भक्तों पर जो विपतियाँ डालते हुए से दीखते है और किसी-किसी की मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और सम्पति भी हर लेते है, सो किसलिये ? उन्हें अज्ञानरूपी निंद्रा से जगाने के लिए, साधनों की रूकावट को हटाने के लिए, पापों से पवित्र करने के लिए, कायरता का नाश करके उन्हें वीर और धीर बनाने के लिए, सच्ची भक्ति को बढ़ाने के लिए और उनकी ऐसी विमल कीर्ति फैलाने के लिए, जिसे गा-गाकर लोग पवित्र हो जायँ । क्योकि विपतिकाल में भगवान जितने याद आते है उतने सम्पतिकाल में नहीं आते । इसलिए कुन्तीदेवी से भगवान से विपत्ति का वर माँगा ।

        ‘हे जगद्गुरों ! हम चाहती है की पद-पद पर हमेशा हम पर विपतियाँ आवे, जिनसे हमे संसार से छुड़ानेवाला आपका दुर्लभ दर्शन मिले ।’  (श्रीमद्भागवत १।८।२५)

        परन्तु यह नियम नहीं है की भक्ति करने वालों को भगवान अवश्य विपति देते है । जैसा अधिकारी होता है, वैसी ही व्यवस्था की जाती है ।

         यदि आप ख्याल करके देखे तो आपको स्पष्ट दीखेगा की परमात्मा की दया की निरन्तर अनवरत वर्षा हो रही है । इस वर्षा की शीतल सुधाधारा  का आनन्द उन्ही को मिलता है जो भगवान की शरण होकर उनकी दया की और ध्यान देते है । दया की ऐसी अनवरत वृष्टि होते रहने पर भी उनकी दया का पप्रभाव  न जाननेके कारण लोग लाभ नहीं उठा सकते । कोई तो मूर्खतावश छाता लगा लेते है और कोई मकान में घुस जाते है । कभी-कभी परमात्मा की विशेष दया से पुर्व-पुण्य-पुन्ज् के कारण उनके प्रेम, प्रभाव, गुण औरर रहस्य की अमृतरूप कथा बिना चाहे और बिना चेष्टा किये स्वत: ही आ प्राप्त होती है, उसके तत्व को नहीं समझने के कारण उपेक्षा करके जो मनुष्य चला जाता है, उसका अमृतरूपी वर्षा से भागकर घर में घुस जाना है और कथा में उपस्थित रह कर आलस्य और नीद लेना है, वह है अपने ऊपर छाता लगा लेना शेष अगले ब्लॉग में .       

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!