※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

भगवान की दया -८-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन शुक्ल, शरतपूर्णिमा, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
               गत ब्लॉग से आगे ... जब भक्त प्रहलादने भगवान की शरण ली, तब पहले-पहल उसपर कैसी-कैसी विपतियाँ आयी ! वह अग्नि में जलाया गया, जल में डुबाया गया, उसे विष पिलाया गया, वह शस्त्र से कटाया गया । परन्तु जैसे-जैसे उसे संकटों की प्राप्ति अधिकाधिक होती गयी, वैसे-ही-वैसे दया का अनुभव अधिकतर होता गया और इस कारण वह परमपवित्र होकर अन्त में परमात्मा को प्राप्त हो गया । लोगों की दृष्टी में तो यही बात ही की प्रहलाद को बहुत दुःख झेलना पड़ा, उस पर अनेक अत्याचार हुए, उसे बड़ी-बड़ी विपतियों का सामना करना पड़ा । कोई-कोई भोले भाई तो यहाँ तक भी कहते है की भगवान की भक्ति करनेवालों को भगवान उतरोतर अधिक विपत्ति देते है, परन्तु वे बेचारे इस बात को नहीं समझते की भगवान की विधान की हुई इस विपत्ति में कितनी भारी सम्पति छिपी रहती है ।

                प्रहलाद इस तत्व को समझता था, इसलिए उसे इन विपतियों में भगवद दयारूपी सम्पति के प्रत्यक्ष दर्शन होते थे । जो मनुष्य भक्त प्रहलाद की तरह प्राप्त हुई विपतियों में परमातम की दया देखता है उसके लिए वे सारी विपत्तियो तत्काल ही सम्पति के रूप में परिणत हो जाती है ।

                आप प्रहलाद के चरित्र को पढिये, उसके वचनों में पद-पद पर कितना धैर्य, निर्भयता, शान्ति, नि:स्पृहता, निष्कामता और आनन्द चमकता है । अग्नि में न जलकर प्रहलाद कहते है ‘हे तात ! यह महान वायु से प्रेरित धधकती हुई अग्नि भी मुझे नहीं जलाती (इसमें आप कोई आश्चर्य न करे), क्योकि मैं इस अग्नि में और अपने में समभाव से उस एक ही सर्वव्यापी भगवान विष्णु को देखता हूँ, अतएव अग्नि के ये लपटे मुझको चारों  और शीतल कमलपत्र के सद्रश बिछी हुई सुखमय प्रतीत होती है ।’(विष्णु० १।१७।४७) । शेष अगले ब्लॉग में.       

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!