※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

भगवान की दया -७-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन शुक्ल, त्रयोदशी, गुरुवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे ...  आप विचारिये की इन कानून में परमात्मा की कितनी दया भरी हुई है । यही नहीं, भगवान के सभी नियम इसी प्रकार दयापूर्ण है । विस्तारभय से यहाँ नहीं लिखे जाते । ऐसे दयाभरे नियम संसार में माता, पिता, गुरु, राजा आदि किसी के ही यहाँ नहीं है ।

अब आप दूसरी और ध्यान दीजिये, ईश्वर ने हमारी सुविधा के लिए संसार में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा आदि ऐसे-ऐसे अद्भूतपदार्थ बनाये है जिनमे हम आराम से जीवन धारण करते है और सुख से विचरते है । यह सब चीजे सबको बिना मूल्य, बिना किसी  रूकावट के पूरी मात्रा में समानभाव से सहज प्राप्त है । कोई कैसा भी महान पापी क्यों न हों, भगवान के इस दान से वह वंचित नहीं रहता ।

संसार के विषयों की भी रचना ईश्वर ने इस ढंग से की है की उनकी अवस्था पर विचार करने से बड़ा उपदेश मिलता है । हम जिस भी किसी पदार्थ की और नजर उठा के देखते है, वही क्षय और नाश हुआ प्रतीत होता है । यह भी एक दया का ही निदर्शन है । संसार के इन सब पदार्थों को देखने से यह उपदेश मिलता है की स्त्री, पुत्र, धन, संसार के सम्पूर्ण पदार्थ एवं हमारा शरीर भी क्षणभंगुर और नाशवान है, इसलिए हमको उचित है की अपने अमूल्य समय को इन विषय भोगने में व्यर्थ न बितावे ।     

परमात्मा की दया तो समानभाव से सब पर सदा ही है, परन्तु मनुष्य जब परमात्मा की शरण हो जाता है तब ईश्वर उस पर विशेष दया करते है । जैसे सुनार सुवर्ण को आग में तपा कर पवित्र बना लेता है, वैसे ही परमात्मा अपने भक्त को अनेक प्रकार की विपतियों के द्वारा तपाकर पवित्र बना लेते है । शेष अगले ब्लॉग में .       

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!