|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, सोमवार, वि०स० २०७०
** गीताके अनुसार मनुष्य अपना
कल्याण करने में स्वतंत्र है **
भगवान्
श्रीकृष्ण ने गीता में जो उपदेश दिया है, वह किसी सम्प्रदाय को सामने रखकर नहीं
दिया है | वह तो सबके लिए समानरूप से पालनीय है | इसीलिए गीता सार्वजनिक ग्रन्थ है
| गीता के उपदेश का हिन्दू तो आदर करते ही हैं, कितने ही इस्लामधर्म के माननेवाले
मुसलमान तथा ईसाईधर्म को माननेवाले लोग एवं अन्यधर्मावलम्बी लोग भी इसका आदर करते
हैं | जर्मनी, अमेरिका आदि देशों के निवासियों ने इसका बहुत आदर किया है |
सुना गया है कि योरपके किसी एक बड़े भरी
पुस्तकालय में अनेक देशों की भाषाओं और लिपियों की पुस्तकें लाखों की संख्या में
एकत्र थीं, जो सुव्यवस्थापूर्वक आलमारियों में सजाई हुयी थीं | उस पुस्तकालय के
बड़े हाल के मध्य में टेबल पर सुन्दर वस्त्र के ऊपर श्रीमद्भगवद्गीता की एक पुस्तक
रखी हुयी थी | वहाँ एक भारतवासी सज्जन गये, उन्होंने उस पुस्तकालय के प्रधान से
पूछा—‘टेबलपर सजाकर रखी हुयी यह कौन-सी पुस्तक है !’ उन्होंने उत्तरमें कहा—‘श्रीमद्भगवद्गीता
|’ भारतीय सज्जन ने पूछा—‘भगवद्गीता क्या है ?’ इस प्रश्न को सुनकर उन अधिकारी
महोदय को बड़ा आश्चर्य हुआ | उन्होंने हँसकर कहा—‘बड़े आश्चर्यकी बात है कि आप भारत
में रहकर भी भारत के प्रधान और उच्चकोटि के महापुरुष श्रीकृष्ण के द्वारा अपने
प्रिय मित्र अर्जुन को दिए हुए उपदेशरूप श्रीमद्भगवद्गीता-ग्रन्थ को नहीं जानते !
यह तो बहुत ही लज्जाकी बात है | यह सुनकर वे भारतीय सज्जन बड़े लज्जित हुए | उनपर
उस प्रधान के उपर्युक्त वचनों का बड़ा असर पड़ा | उन्होंने कहा—‘मैंने नाम तो सुना
था, पर इसे देखा न था; अब मैं इसका अध्ययन करूँगा |’
जिस गीता
का आदर भारतेतर देशों में भी है, उसका हम भारतीय लोग जितना आदर करना चाहिए, उतना
नहीं करते—यह बड़ी ही लज्जा और दुःख की बात है |
गीता बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है |
यह भगवान् की वांग्मयीमूर्ति है, भगवान् का निःश्वास है और भगवान् के हृदय का भाव
है | यह उपनिषद आदि सम्पूर्ण शास्त्रों का सार है | गीता की भाषा बहुत ही सरल,
सुन्दर और भावपूर्ण है | गीता के अध्ययन का महत्त्व गंगास्नान और गायत्रीजप से भी
बढ़कर कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है | इसका श्रवण, कथन, गायन और स्मरण—सभी परम मधुर
और परम कल्याणप्रद है |.....शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!