※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष -१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष शुक्ल,तृतीया, शनिवार, वि० स० २०७०

 
समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष -१-

 

भली और बुरी–दोनों ही बाते समाज में रहती है । कभी भली बढती है तो कभी बुरी । परिवर्तन होता ही रहता है । यह ठीक नहीं की पुरानी सभी बाते बुरी ही होती है अथवा नयी सब बाते अच्छी ही होती है । अच्छी-बुरी दोनों में ही है । मनुष्य को विवेक-विचार तथा साहस के साथ बुरी का त्याग और अच्छी का ग्रहण करना चाहिये । जो मनुष्य मिथ्या आग्रह से किसी बात पर अड़ जाता है, उसका विकास नहीं होता । यही हाल समाज का है । हमारे हिन्दू समाज में भी अच्छी-बुरी बाते है-जो अच्छी है उनके सम्बन्ध में तो कुछ कहना नहीं है; जो बुरी है-फिर चाहे वे नई हो या पुरानी-उन्ही पर विचार करना है । यहाँ संक्षेप में कुछ ऐसी बुराइयो पर विचार किया जाता है जिनका त्याग समाज के लिए आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक और आर्थिक सभी दृष्टीईयो से परम आवश्यक है ।

 

- रहन-सहन
 
- खान-पान
 
- वेश-भूषा
 
- रस्म-रिवाज
 
- चरित्रगठन और स्वास्थ्य
 
- कुविचारो का प्रचार
 
- बहम और मिथ्या विश्वास
 
- व्यवहार-बर्ताव
 
- व्यापार के नाम पर जुआ

 

 

रहन-सहन

 

समय, वातावरण तथा स्थिति के अनुसार रहन-सहन में परिवर्तन तो होता ही है, परन्तु ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिये जो घातक हो । इस समय हम देखते है की समाज का रहन-सहन तीव्र गति से पाश्चात्य ढंग का होता चला आ रहा है । पाश्चात्य रहन-सहन बहुत अधिक खर्चीला होने से हमारे लिए आर्थिक दृष्टी से तो घातक है ही, हमारी सभ्यता और सदाचार के विरुद्ध होने से आध्यात्मिक और नैतिक पतन का भी हेतु है । उदहारण के लिए- जूता पहने घरो में घूमना, एक साथ बैठ कर खाना, खाने में काटे-छुरी का उपयोग करना, टेबल-कुर्सी पर बैठ कर खाना, जूतियो के कई जोड़े रखना, रोज चर्बी-मिश्रित साबुन लगाना, खाने-पीने की चीजो में संयम न रखना, भोजन करके कुल्ला न करना,मल-मूत्र त्याग के बाद मिट्ठी के बदले साबुन से हाथ धोना या बिलकुल ही न धोना, फैशन के पीछे पागल रहना, बहुत आधिक कपड़ो का संग्रह करना, बार-बार पोशाक बदलना, आदि-आदि इनका त्याग होना आवश्यक है ।.....शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!