※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष शुक्ल, अष्टमी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष -५-

 

- रस्म-रिवाज

 


गुजरात और महाराष्ट्र में विवाह के अवसर पर हरी-कीर्तन की बड़ी सुन्दर प्रथा है । हरिकीर्तन में एक कीर्तनकार होते है, जो किसी भक्त चरित्र को गा-गा कर सुनाते है । बीच-बीच में नामकीर्तन भी होता रहता है । सुन्दर मधुर स्वर के वाद्यों के सहयोग होने से कीर्तन सभी के लिए रुचिकर और मनोरंजक भी होता है और उससे बहुत अच्छी शिक्षा भी मिलती है । उत्तर और पश्चिम भारत के धनी लोग उपयुक्त कुप्रथाओ को छोड़ कर इस प्रथा को अपनावे तो बड़ा अच्छा है ।

 लड़किओं के विवाह भी आजकल बहुत बड़ी उम्र में होने लगे है । बाल-विवाह से बड़ी हानो हुई है, परन्तु लड़की को युवती बना कर विवाह करना बहुत हानिकर है । शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार रजोदर्शन होने के बाद विवाह करना अधर्म तो है ही, आजकल के बिगड़े हुए समाज में तब तक चरित्र का पवित्र रहना भी असंभव-सा ही है । युवती-विवाह के कारण कुमारी अवस्था में आजकल व्यभिचार की मात्र जिस तीव्र गति से बढ़ रही है, उसे देखते भविष्य बहुत ही भयानक मालूम होता है । यही हाल स्कूली लडको का है । अत एव लड़की का विवाह  रजोदर्शन से पूर्व और लड़के का अठारह  वर्ष की आयु में कर देना उचित जान पढता है । अवश्य ही स्त्री-पुरुष का संयोग तो स्त्री के रजोदर्शन के बाद ही होना चाहिये । नहीं तो धर्म की हानि के अतिरिक्त हिस्टीरिया, क्षय (तपेदिक) और प्रदर आदि की भयंकर बीमारियाँ होकर उनका जीवन नष्ट प्राय हो जाता है ।

 घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर श्राद्धभोज और बंधुभोज की प्राचीन प्रथा है । यह वास्तव में कोई दूषित प्रथा नहीं है, परन्तु निर्दोष प्रथा भी जब देश, काल और पात्र के अनुकूल नहीं होती तो वह दूषित हो जाती है । जिस समय खाद्य पदार्थ बहुत सस्ते थे और गृहस्थ के दुसरे खर्च कम थे, उस समय की बात दूसरी थी । अब तो बहुधा यह देखा जाता है की इस प्रथा की रक्षा के लिए ब्राह्मण-भोजन और बन्धुभोजन में साधारण मध्यवित गृहस्थो के स्त्री-धन और गहर-मकान और जगह-जमीन तक बिक जाते है । परिणाम यह होता है की पूरे परिवार के सभी लोगो के जीवन दुःख:पूर्ण हो जाते है । इस प्रथा में शास्त्रोक्त ब्राह्मण-भोजन तो अवश्य करना चाहीये, परन्तु कुटुम्बियो को छोड़ कर बंधू-भोजन की कोई आवश्यकता नहीं है ।

 विवाह और अवसर आदि पर पुरे देश-से कुटुम्बियो का जो आना है इसकी भी कमी करनी चाहिए; क्योकि इसमें भी विशेष धन व्यय होता है तथा लोगो को आने-जाने में हैरानी भी बहुत आती है ।

 बड़े शहरो में बड़े आदमियो के यहाँ विवाहों में आजकल बिजली का खर्च,मेहमानदारी का खर्च और उपरी आड़म्बर का खर्च इतना बढ़ गया है की गरीब गृहस्थो के यहाँ उतने खर्च में कई विवाह हो सकते है । मान-सम्मान, कीर्ति और पोजीशन का मिथ्या मोह, मूढ़ता और हठधर्मी ही इन सारे रस्म-रिवाजो के चलते रहने में प्रधान कारण है  । अत एव इन सबको छोड़ कर साहस के साथ ऐसे रस्मो का त्याग कर देना चाहिये ।.....शेष अगले ब्लॉग में ।


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!