※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 15 जनवरी 2014

आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -१-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष शुक्ल, चतुर्दशी, बुधवार, वि० स० २०७०

 
 आत्मोन्नतिमें सहायक बातें -१-

 

शरीर और इन्द्रियों की क्रियाओं की सुधार की अपेक्षा मन के सुधारपर विशेष ध्यान देना चाहिये; क्योकि मन के भाव ही क्रियारूप से परिणत होते है, अत मन के सुधार से शरीर और इन्द्रियों का सुधार स्वत: ही हो जाता है । यदि शरीर और इन्द्रयों के साथ मन नहीं है तो उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं का कोई विशेष मूल्य भी नहीं है । शरीर और इन्द्रियों के बिना भी मन क्रिया करता रहता है । उसका एक क्षण भी क्रियारहित रहना कठिन है ।

श्री भगवान ने कहाँ है -

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्

कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: (गीता ३|५)

‘निसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नही रहता, क्योकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।’


श्रीभगवान् के यह वचन प्रधानतया मन की क्रिया को लक्ष्य रखकर ही है; क्योकि शरीर और इन्द्रियों की क्रिया निरन्तर चालू नहीं देखी जाती । अत: मन की क्रियाओं के सुधार का विशेष प्रयत्न करना चाहिये । मन के द्वारा अनेक प्रकार की क्रियाएँ होती है । उनको हम चार भागों में विभक्त कर सकते है ।

मन में भक्ति, ज्ञान वैराग्य, उपरति, सद्गुण और सदाचारविषयक मनन स्वाभाविक ही होना एवं प्रयत्न से करना । भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य आदि का अथवा विज्ञानानन्दघन निर्विशेष ब्रह्मका अभेदरूप से मनन  और निधिध्यासन करना, संसार के भोगों को दुखरूप, क्षणभंगुर, नाशवान समझना तथा अन्तकरणमें क्षमा, दया, समता, शान्ति आदि उत्तम गुणों का भाव होना एवं यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा, संयम, परोपकार, तीर्थ, व्रत, उपवास आदि उत्तम आचरणों को निष्कामभावपूर्वक करने एवं दुर्गुण, दुराचार, दुर्व्यसन, व्यर्थ चेष्टा और भोगों के त्याग करने की इच्छा, स्फुरणा और संकल्प होना-ये सब तो मन की आत्मकल्याण के लिए होनेवाली अध्यात्म (परमार्थ) विषय की क्रियाएँ है ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन-कल्पतरु पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!