※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

प्रेम और शरणागति

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल ५, शुक्रवार, वि०स० २०७१


*** प्रेम और शरणागति ***
     प्रेमका वास्तविक वर्णन हो नहीँ सकता । प्रेम जीवनको प्रेममय बना देता है।प्रेम गूँगेका गुड़ है। प्रेमका आनंद अवर्णनीय होता है।रोमांच,अश्रुपात,प्रकम्प आदि तो उसके बाह्य लक्षण हैँ,भीतरके रस प्रवाहको कोई कहे भी तो कैसे ? वह धारा तो उमड़ी हुई आती है और हृदयको आप्लावित कर डालती है । पुस्तकोँ मेँ प्रेमियोँकी कथा पढ़ते है; किँतु सच्चे प्रेमीका दर्शन तो आज दुर्लभ ही है।परमात्माका सच्चा परम प्रेमी एक ही व्यक्ति करोड़ो जीवोँको पवित्र कर सकता है ।

        बरसते हुए मेघ जिधरसे निकलते हैँ उधरकी ही धराको तर कर देते हैँ।इसी प्रकार प्रेमकी वर्षासे यावत् चराचरको तर कर देता है । प्रेमी के दर्शनमात्रसे ही हृदय तर हो जाता है और लहलहा उठता है । तुलसीदासजी महाराजने कहा है

मोरेँ मन प्रभु अस विश्वासा।राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिँधु घन सज्जन धीरा।चंदन तरु हरि संत समीरा॥

समुद्रसे जल लेकर मेघ उसे बरसाते हैँ और वह बड़ा ही उपकारी होता है । भगवान समुद्र हैँ और संत मेघ।भगवानसे ही प्रेम लेकर संत संसारपर प्रेम बरसाते हैँ और जिस प्रकार मेघका जल नदियोँ,नालोँ से होकर पृथ्वीको उर्वरा बनाते हुए समुद्रमेँ प्रवेश कर जाता है,ठीक उसी प्रकार संत भी प्रेमकी वर्षा कर अंतमेँ प्रभुके प्रेमको प्रभुमेँ ही समर्पित कर देते हैँ ।
 
         प्रभु चंदनके वृक्ष हैँ और संत बयार (वायु) । जिस प्रकार हवा चंदन की सुगन्ध को दिग्दिगन्तमेँ फैला देती है,उसी प्रकार संत भी प्रभुकी दिव्य गन्धको प्रवाहित करते रहते हैं । संत को देखकर प्रभुकी स्मृति आती है,अतएव संत प्रभुके स्वरुप हैँ, इसी प्रकार श्रद्धालु पुरुष भी केवल संतोके ही आश्रय रहते हैँ ।
 
         प्रेमी के वाणी और नेत्र आदि से प्रेम की वर्षा होती रहती है | उसका मार्ग प्रेम से पूर्ण होता है | वह जहाँ जाता है वहाँ के कण-कण में, हवा में, धूलि में उसके स्पर्श के कारण प्रेम-ही-प्रेम दृष्टिगोचर होता है | उसका स्पर्श ही प्रेममय होता है, स्नेह से ओतप्रोत होता है |

         अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह प्रेम कैसे प्राप्त हो ? इस सम्बन्ध में गोस्वामीजी ने कहा है—
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग |
मोह  गएँ  बिनु  राम पद  होई   दृढ़  अनुराग ||
किन्तु शोक है, हमलोगों का प्रेम तो काँचन-कामिनी, मान-प्रतिष्ठा में हो रहा है | हम तो सच्चे प्रेम के लिए हृदय में कभी कामना ही नहीं करते | जबतक प्रेम के लिए हृदय तरस नहीं जाता, व्याकुल नहीं होता, तबतक प्रेमकी प्राप्ति हो भी कैसे सकती ? अभी तो हमलोगों का कामी मन नारी-प्रेम में ही आनन्द की उपलब्धि कर रहा है | अभी तो हमलोगों का लोभी चित्त काँचन की प्राप्ति में ही पागल है | अभी तो हमलोगों का चंचल चित्त मान-बड़ाई के पीछे मारा-मारा फिरता है | जबतक हमलोगों का यह काम और लोभ सब ओर से सिमटकर एकमात्र प्रभु के प्रति नहीं हो जाता, तबतक हम प्रभु के प्रेम को प्राप्त भी कैसे कर सकते हैं ?

         प्रेमी मूक रहते हुए भी भाषण देता है | मानों उसका अंग-अंग बोलता है | उसके सभी अवयवों से मानों एक शुद्ध संकेत, एक निर्मल ध्वनि निकलती है |  प्रेमी उपदेश देने नहीं जाता, वह क्या बोले, कैसे बोले ? गोपियों ने प्रेम की शिक्षा किसे और कब दी थी ? भरतजी ने भक्ति का उपदेश कब और किसे दिया ? उनके चरित्र उपदेश देते रहे और देते रहेंगे | प्रेम में जिस अनन्यता और आत्मसमर्पण की सराहना की गयी है, उसकी सजीव मूर्ति गोपियाँ हैं | इसी प्रकार रामायण में उसके प्राणस्वरूप प्रेम-मूर्ति श्रीभरतजी हैं |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!