|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल ६,
शनिवार, वि०स० २०७१
*** प्रेम और शरणागति ***
गत
ब्लॉग से आगे.......यह हमारा
शरीर ही क्षेत्र है | इस खेत में कर्मरूप जैसा बीज बोया जायगा वैसा ही फल उपजेगा |
बीज तो परमात्मा का प्रेमपूर्वक ध्यानसहित जप है | परन्तु
जल के बिना यह बीज उग नहीं सकता वह जल है हरि-कथा और
हरि-कृपा | खेत में गेहूँ बोने से और आम बोने से आम उपजता है | इसी प्रकार
हृदयरूप खेत में राम ही उपजेगा | हम प्रेमपूर्वक भगवान् के ध्यान और जपका बीज
बोयेंगे तो फलरूप हमें प्रेममय भगवान् ही मिलेंगे | प्रेममय भगवान् का साक्षात्कार
ही इस बीज का फल है | साधारण बीज तो धूलि में पड़कर नष्ट भी हो जाता है; परन्तु
निष्काम रामनाम का वह अमर बीज कभी नष्ट नहीं होता | जल है हरि-कथा और हरिकृपा, जो
संतों के संग ही प्राप्ति होती है | उस हरिकथा और
हरि-कृपा से ही हरि में विशुद्ध प्रेम होता है, अतएव प्रेम की प्राप्ति का उपाय
सत्संग ही है |
प्रभु में हमारा प्रेम कैसा हो ?
श्रीराम का उदाहरण लीजिये | भगवान् श्रीराम लता-पत्ता से पूछते हैं—‘तुमने मेरी
सीताजी को देखा है ? गोपियों को देखिये, वे वन-वन ‘कृष्ण-कृष्ण’ पुकार-पुकारकर
अपने हृदय धन को खोज रहीं हैं | जितनी ही अधिक तीव्र
उत्कंठा प्रेम में होती है उतना ही शीघ्र प्रेममय ईश्वर मिलते हैं |
भगवान्
जल्दी-से-जल्दी कैसे मिलें—यह भाव जाग्रत रहनेपर ही भगवान् मिलते हैं | यह लालसा
उत्तरोत्तर बढ़ती चले | ऐसी उत्कट इच्छा ही प्रेममय के मिलने का कारण है और प्रेम
से ही प्रभु मिलते हैं | प्रभु का रहस्य और प्रभाव जाननेपर हम उसके बिना एक क्षण
भर भी नहीं रह सकते |
पपीहा मेघ को देखकर आतुर होकर विव्हल हो
उठता है | ठीक उसी प्रकार हमें प्रभु के लिए पागल हो जाना चाहिए |
मछली का जलमें, पपीहे का मेघमें, चकोरका
चन्द्रमा में जैसा प्रेम है वैसा ही हमारा प्रेम प्रभु में हो | एक पल भी उसके
बिना चैन न मिले, शान्ति न मिले | ऐसा प्रेम प्रेममय सन्तों की कृपा से ही प्राप्त
होता है | चन्दन के वृक्ष की गन्ध को लेकर वायु समस्त वृक्षों को चन्दनमय बना देता
है | बनानेवाली तो गन्ध ही है परन्तु वायु के बिना उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती |
इसी प्रकार संतलोग आनंदमय के आनन्द की वर्षा कर विश्व को आनन्दमय कर देते हैं,
प्रेम और आनन्द के समुद्र को उम्दा देते हैं | गौरांग महाप्रभु जिस पथ से निकलते
थे, प्रेम का प्रवाह बहा देते थे | गोस्वामीजी की लेखनी में कितना अमृत भरा पड़ा है
| पर ऐसे प्रेमी संतों के दर्शन भी प्रभु की पूर्ण कृपा से होते हैं | प्रभु की
कृपा तो सबपर पूर्ण है ही, किन्तु पात्र बिना वह कृपा फलवती नहीं होती | शरणागत भक्त ही प्रभु की ऐसी कृपा के पात्र हैं, अतएव हमें
सर्वतोभाव से भगवान् के शरण होना चाहिए | सर्वथा उसका आश्रित बनकर रहना चाहिए | सब
प्रकार से उसके चरणों में अपने को सौंप देना चाहिए | भगवान् ने कहा भी है—
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(गीता
१८ | ६२ )
‘हे
भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को हो | उसकी कृपा से ही परम शांति को और सनातन
परम धाम को प्राप्त होगा |’
मनसे, वाणी से और कर्म से शरण होना
चाहिए | तभी सम्पूर्ण समर्पण होता है यानी उस परमेश्वर को मन से पकड़ना चाहिए, वाणी
से भी पकड़ना चाहिए और कर्म से भी पकड़ना चाहिए |
उनके किये हुए विधानों में प्रसन्न रहना,
उनके नाम, रूप, गुण और लीलाओं का चिंतन करना मनसे पकड़ना है | नामोच्चारण करना,
गुणगान करना वाणीसे पकड़ना है और उनके आज्ञानुसार चलना कर्म से यानी क्रियाओं से
पकड़ना है |....शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,
गीताप्रेसगोरखपुर
नारायण !
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!