※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 6 अप्रैल 2014

प्रेम और शरणागति



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल ७, रविवार, वि०स० २०७१

*** प्रेम और शरणागति ***
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मन से प्रभु को पकड़ना
(१)      सच्चा भक्त प्रभु के प्रत्येक विधान में दया का दर्शन करता रहता है, प्रभु तो दया और न्याय के समुद्र हैं | परम प्रेमी और सच्चे सुहृद तो केवल वही हैं | उनकी दया में न्याय और न्याय में दया ओतप्रोत है | सब कुछ प्रभु का पुरस्कार ही है | मृत्यु भी उनकी दया का ही चिह्न है | मयूरध्वज का पुत्र कितना प्रसन्न हुआ जब उसने यह जाना कि उसको चीरकर उसका मांस श्रीकृष्ण के सिंह को परोसा जायगा | भक्त तो मृत्यु को भी प्रभु का प्रसाद मानकर प्रेम से गले लगाता है | वह उसे ईश्वर का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर उसी से आनन्द और कल्याण मानता है | प्रभु तो बहुरूपिये के रूपमें सर्वत्र सर्वदा हमारे आस-पास भीतर-बाहर गुप्तरूप से विचरते हैं | जो प्रभु के तत्त्व को जान जाता है, वह सर्वत्र प्रभु की दया-ही-दया का दर्शन करता है |

         इस प्रकार शरण चले जानेपर सभी विधानों में आनन्द-ही-आनन्द मिलने लगता है | प्राणाधार की लात खाने में एक अपूर्व मिठास है | उसमें प्यार से भी अधिक मिठास है, दिलवर की जूतियों में भी एक अपूर्व रस है |
(२)      दीवालपर या हृदय पर या प्रभु की मूर्ति पर मनसे प्रभु के नाम को लिखकर चिंतन करना या मनसे जप करना प्रभु के नाम का चिंतन है |
(३)      सच्चिदानन्दस्वरुप से परमेश्वर का सर्वत्र आकाश की भांति नित्य-निरन्तर चिंतन करना निराकार-स्वरुप का चिंतन करना है | वह विज्ञानानंदघन परमात्मा ही अपनी योगमाया से तेजोमय दिव्य विग्रह को देवता, मनुष्य आदि की आकृति में धारण करते हैं—ऐसा समझकर उनकी दिव्य माधुरी मूर्ति का चिंतन करना प्रभु के साकार स्वरुप का चिंतन करना है | जैसे निर्मल आकाश में परमाणुरूप से एवं बादल बूंद और ओलों के रूप में रहनेवाले जल को जो जल समझता है वही जल के सारे तत्त्व को जानने वाला है | वैसे ही निराकार और साकार मिलकर ही प्रभु का समग्र रूप होता है | इसी तत्त्व को भगवान् ने गीता के ७वें अध्याय में विस्तार से बतलाया है | इस रहस्य को समझकर ही प्रभु का चिन्तन करना असली चिंतन करना है |
(४)      प्रभु सारे सात्त्विक गुणों के समुद्र हैं | उनमें क्षमा, दया, शान्ति, समता, सरलता, उदारता, पवित्रता अपरिमित हैं | वे ज्ञान, वैराग्य, तेज और ऐश्वर्य से पूर्ण हैं | सारे संसार के जीवों में जो दया और प्रेम दीखते हैं, वह सब मिलकर प्रेममय दयासागर की दया और प्रेम के एक बूंद के समान नहीं है | सारे संसार का तेज और ज्ञान इकट्ठा किया जाय तो भी उस तेजोमय ज्ञानस्वरूप परमात्मा के तेज के एक अंश के बराबर भी नहीं हो सकता | इसी प्रकार उनके सारे गुणों की आलोचना करना उनके गुणों का चिन्तन करना है |
(५)      प्रभु ने दशरथजी के यहाँ मनुष्य-आकृति में प्रकट होकर भाइयों के साथ नीति और प्रेम का व्यवहार करके नीति और प्रेम की शिक्षा दी | माता-पिता की आज्ञा का पालन करके सेवाभाव सिखलाया | दुष्टों को दण्ड दिया तथा ऋषि, मुनि और साधुओं का उद्धार किया | बड़े त्याग और सुहृदता के साथ प्रजा का पालन किया | यज्ञ, दान, तप, सेवा, व्रत, सत्य ब्रह्मचर्यादि सदाचारों को चरितार्थ करके हमलोगों को दिखलाया | इस प्रकार उनके पवित्र चरित्रों का अवलोकन करना उनकी लीलाओं का चिन्तन करना है |...शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!