|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल ९,
मंगलवार, वि०स० २०७१
*** प्रेम और शरणागति ***
गत
ब्लॉग से आगे.......अतएव हमलोगों को संसार के सारे
पदार्थों को लात मारकर प्रभु की शरण में जाना चाहिए | ऋद्धि-सिद्धि, मान-बड़ाई और
प्रतिष्ठा आदि से भी वृतियां हटा लेनी चाहिए | यह अपार संसार एक अथाह सागर है |
इसके पार जाने के दो ही साधन हैं—नाव से जाना अथवा तैरकर जाना | नाव प्रभु का
प्रेम है और तैरना है सांख्योग यानी ज्ञान | कहने की आवश्यकता नहीं कि तैरने की
अपेक्षा नाव में जाना सुगम, निश्चित और सुरक्षित है |
प्रेमरूपी नौका की प्राप्ति के लिए प्रभु
की शरण जाना चाहिए | तैरने के लिए तो हिम्मत और त्याग की आवश्यकता है | तैरने में
हाथ और पैर से लहरें चीरते हुए आगे बढ़ा जाता है | संसार-सागर में विषयरूपी जल को
हाथ और पैर से फेंकते हुए हम तैर जा सकते हैं—उस पार जाने का लक्ष्य न भूलें और
लहरों में हाथ-पैर न रुकें | तैरने के समय शरीर पर कुछ भी बोझ न होना चाहिए | इसी
प्रकार विषयों की लहरों को चीरकर आगे बढ़ने के लिए हमारे भीतर तीव्र और दृढ़
वैराग्यरूपी उत्साह का होना आवश्यक है | इसके बिना तो एक हाथ भी बढ़ना असम्भव है |
हाथों से लहरें चीरता जाय, पैरों से जल फेंकता जाय |
सच्चे आत्मसमर्पण में तो विषयासक्ति का
त्याग अनिवार्य है ही | विषयों में प्रेम भी हो और भगवदर्पण भी हो, यह सम्भव नहीं
|
काँचन-कामिनी से भी अधिक मीठी छुरी मान-बड़ाई
है | इसने तो बहुत ही बड़े-बड़े साधकों फँसा दिया, रोक दिया और अंततोगत्वा डुबा दिया
| इससे सदा बचे रहना चाहिए |
इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि ज्ञान से
तैरने की अपेक्षा प्रेममयी नित्य-नवीन नौका में जाना सुखप्रद, सहज और आनन्ददायक है
|
वह विशुद्ध प्रेम प्रभु की अनन्य शरण होने से ही प्राप्त होता है,
अतएव अनन्य शरण होकर जाना ही नौका से जाना है | संसार-सागर को तो हर दशा
में लाँघना ही पड़ेगा | ‘उस पार’ गये बिना तो प्राणवल्लभ की झाँकी होने की नहीं |
फिर क्यों न उसी की शरण में जाकर उसी के हाथ का सहारा बनकर चल चलें | भगवान् ने
स्वयं प्रतिज्ञा भी की है—
ये तू सर्वाणि कर्माणि मयि संयस्य मत्पराः |
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ||
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् |
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ||
(गीता
१२ | ६-७)
‘हे
अर्जुन ! जो मेरे परायण हुए भक्तजन, सम्पूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके, मुझ
सगुणरूप परमेश्वर को ही तैलधारा के सदृश अनन्य ध्यानयोग से निरन्तर चिंतन करते हुए
भजते हैं, उन मेरे में चित्त को लगानेवाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही
मृत्युरूप संसार-समुद्र से उद्धार करनेवाला होता हूँ |’ यह
संसार-समुद्र बड़ा ही दुस्तर है, इससे तरने का सहज उपाय भगवान् की शरण ही है |
भगवान् ने कहा है कि—
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते |
(गीता
७ | १४)
‘यह
अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है; परन्तु जो पुरुष
मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर
जाते हैं |’
अतएव हमलोगों को प्रेम और प्रेममय भगवान्
की प्राप्ति के लिए मनसा, वाचा, कर्मणा सब प्रकार भगवान् की अनन्य शरण* होना चाहिए
|
·
अनन्ययोग से
उपासना, अव्यभिचारिणी भक्ति एवं अनन्यशरण—यह तीनों एक ही हैं |
—श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका
तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
नारायण !
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!