※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

अनन्य प्रेम ही भक्ति है



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल १०, बुधवार, वि०स० २०७१
*** अनन्य प्रेम ही भक्ति है ***
    अनिर्वचनीय ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के लिए भगवद्भक्ति के सदृश किसी भी युग में अन्य कोई भी सुगम उपाय नहीं है | कलियुग में तो है ही नहीं | परन्तु यह बात सबसे पहले समझने की है कि भक्ति किसे कहते हैं ? भक्ति कहने में जितनी सहज है, करने में उतनी ही कठिन है | केवल बाह्याडम्बर का नाम भक्ति नहीं है | भक्ति दिखाने की चीज नहीं, वह तो हृदय का परम गुप्त धन है | भक्ति का स्वरुप जितना गुप्त रहता है उतना ही वह अधिक मूल्यवान समझा जाता है | भक्ति-तत्त्व का समझना बड़ा कठिन है | अवश्य ही उन भाग्यवानों को इसके समझने में बहुत आयास या श्रम नहीं करना पड़ता, जो उस दयामय परमेश्वर के शरण हो जाते हैं | अनन्य शरणागत भक्त को भक्ति का तत्त्व परमेश्वर स्वयं समझा देते हैं | एक बार भी जो सच्चे हृदय से भगवान् की शरण हो जाता है, भगवान् उसे अभय कर देते हैं, यह उनका व्रत है |
सकृत प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते |
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रत मम ||
(वा०रा० ६ | १८ | ३३)
          भगवान् की शरणागति एक बड़े ही महत्त्व का साधन है, परन्तु उसमें अनन्यता होनी चाहिए | पूर्ण अनन्यता होनेपर भगवान् की ओर से तुरंत ही इच्छित उत्तर मिलता है | विभीषण अत्यन्त आतुर होकर एकमात्र श्रीराम के आश्रय में ही अपनी रक्षा समझकर श्रीराम की शरण आता है | भगवान् राम उसे उसी क्षण अपना लेते हैं | कौरवों की राजसभा में सब तरफ से निराश होकर देवी द्रौपदी ज्यों ही अशरण-शरण श्रीकृष्ण को स्मरण करती है, त्यों ही चीर अनन्त हो जाता है | अनन्य शरण के यही उदाहरण हैं | यह शरणागति सांसारिक कष्ट-निवृत्ति के लिए थी | इसी भाव से भक्तों को भगवान् के लिए ही भगवान् के शरणागत होना चाहिए, फिर तत्त्व की उपलब्धि होने में विलम्ब नहीं होगा |

          यद्यपि इस प्रकार भक्ति का परम तत्त्व भगवान् की शरण होने से ही जाना जा सकता है तथापि शास्त्र और संत-महात्माओं की उक्तियों के आधार पर अपना अधिकार न समझते हुए भी मैं जो कुछ लिख रहा हूँ इसके लिए भक्तजन मुझे क्षमा करें |

         परमात्मा में परम अनन्य विशुद्ध प्रेम का होना ही भक्ति कहलाता है | श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक जगह इसका विवेचन है, जैसे—
‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |’ (१३ | १०)
‘मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवत |’ (१४ | २६)—आदि इसी प्रकार का भाव नारद और शाण्डिल्य-सूत्रों में पाया जाता है |........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!