|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल १०,
बुधवार, वि०स० २०७१
*** अनन्य प्रेम ही भक्ति है ***

सकृत
प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते |
अभयं
सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रत मम ||
(वा०रा० ६ | १८ |
३३)
भगवान् की शरणागति एक बड़े ही महत्त्व
का साधन है, परन्तु उसमें अनन्यता होनी चाहिए | पूर्ण अनन्यता होनेपर भगवान् की ओर
से तुरंत ही इच्छित उत्तर मिलता है | विभीषण अत्यन्त आतुर होकर एकमात्र श्रीराम के
आश्रय में ही अपनी रक्षा समझकर श्रीराम की शरण आता है | भगवान् राम उसे उसी क्षण
अपना लेते हैं | कौरवों की राजसभा में सब तरफ से निराश होकर देवी द्रौपदी ज्यों ही
अशरण-शरण श्रीकृष्ण को स्मरण करती है, त्यों ही चीर अनन्त हो जाता है | अनन्य शरण
के यही उदाहरण हैं | यह शरणागति सांसारिक कष्ट-निवृत्ति के लिए थी | इसी भाव से भक्तों को भगवान् के लिए ही भगवान् के शरणागत होना चाहिए, फिर
तत्त्व की उपलब्धि होने में विलम्ब नहीं होगा |
यद्यपि इस प्रकार भक्ति का परम तत्त्व
भगवान् की शरण होने से ही जाना जा सकता है तथापि शास्त्र और संत-महात्माओं की
उक्तियों के आधार पर अपना अधिकार न समझते हुए भी मैं जो कुछ लिख रहा हूँ इसके लिए
भक्तजन मुझे क्षमा करें |
परमात्मा में परम अनन्य विशुद्ध प्रेम का
होना ही भक्ति कहलाता है | श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक जगह इसका विवेचन है,
जैसे—
‘मयि चानन्ययोगेन
भक्तिरव्यभिचारिणी |’ (१३ | १०)
‘मां च योऽव्यभिचारेण
भक्तियोगेन सेवत |’ (१४ | २६)—आदि
इसी प्रकार का भाव नारद और शाण्डिल्य-सूत्रों में पाया जाता है |........शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,
गीताप्रेसगोरखपुर
नारायण !
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!