※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

अनन्य प्रेम ही भक्ति है



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल ११, गुरुवार, वि०स० २०७१
*** अनन्य प्रेम ही भक्ति है ***
         गत ब्लॉग से आगे.......अनन्य प्रेम का साधारण स्वरुप यह है—एक भगवान् के सिवा अन्य किसी में किसी समय भी आसक्ति न हो, प्रेम की मग्नता में भगवान् के सिवा अन्य किसी का ज्ञान ही न रहे | जहाँ-जहाँ मन जाय वहीं भगवान् दृष्टिगोचर हों | यों होते-होते अभ्यास बढ़ जानेपर अपने-आप की विस्मृति होकर केवल एक भगवान् ही रह जायँ | यही विशुद्ध अनन्य प्रेम है | परमेश्वर में प्रेम करने का हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो—प्रेम के लिए ही प्रेम किया जाय, अन्य कोई हेतु न रहे | मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा और इस लोक तथा परलोक के किसी भी पदार्थ की इच्छा की गन्ध भी साधक के मन में न रहे, त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी उसका मन कभी न ललचावे | स्वयं भगवान् प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करने के लिए आग्रह करें तब भी न ले | इस बात के लिए यदि भगवान् रूठ जायँ तो भी परवा न करे | अपने स्वार्थ की बातें सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपारामता हो | भगवान् की ओर से विषयों का प्रलोभन मिलनेपर मन में पश्चात्ताप होकर यह भाव उदय हो कि ‘अवश्य ही मेरे प्रेम में कोई दोष है, मेरे मनमें सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थ की बातों को सुनकर यथार्थ में मुझे क्लेश होता तो भगवान् इनके लिए मुझे कभी न ललचाते |’ विनय, अनुरोध और भय दिखलाने पर भी परमात्मा के प्रेम के सिवा किसी भी हालत में दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठ पर अटल-अचल रहे | वह यही समझता रहे कि भगवान् जबतक मुझे नाना प्रकार के विषयों का प्रलोभन देकर ललचा रहे हैं और मेरी परीक्षा ले रहे हैं, तबतक मुझमें अवश्य ही विषयासक्ति है | सच्चा-प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पद को छोड़कर दूसरी बात भी मैं नहीं सुन सकता | विषयों को देख, सुन और सहन कर रहा हूँ | इससे यह सिद्ध है कि मैं सच्चे-प्रेम का अधिकारी नहीं हूँ, तभी तो भगवान् मुझे लोभ दिखा रहे हैं | उत्तम तो यह था कि मैं विषयों की चर्चा सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता | ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिए निःसंदेह मेरे हृदय में कहीं-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है | यह है विशुद्ध प्रेम के ऊँचे साधन का स्वरुप |

         ऐसा विशुद्ध प्रेम होनेपर जो आनन्द होता है कि उसकी महिमा अकथनीय है | ऐसे प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्य प्रेमी ही जानता है | प्रेम की साधारणतः तीन संज्ञाएँ है—गौण, मुख्य और अनन्य | जैसे नन्हे बछड़े को छोड़कर गौ वन में चरने जाती है, वहाँ घास चरती है, उस गौ का प्रेम घास में गौण है; बछड़े में मुख्य है और अपने जीवन में अनन्य है, बछड़े के लिए घास का एवं जीवन के लिए वह बछड़े का भी त्याग कर सकती है | इसी प्रकार उत्तम साधक सांसारिक कार्य करते हुए भी अनन्य-भाव से परमात्मा का चिन्तन किया करते हैं | साधारण भगवत्प्रेमी साधक अपना मन परमात्मा में लगाने की कोशिश करते हैं; परन्तु अभ्यास और आसक्तिवश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयों में चला ही जाता है | जिनका भगवान् में मुख्य-प्रेम है वे हर समय भगवान् को स्मरण रखते हुए समस्त कार्य करते हैं और जिनका भगवान् में अनन्य-प्रेम हो जाता है उनको तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेवमय ही प्रतीत होने लगता है | ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ हैं (गीता ७ | १९) |

         इस प्रकार अनन्य प्रेमी भक्तों में कई तो प्रेम में इतने गहरे डूब जाते हैं कि वे लोकदृष्टि में पागल-से दीख पड़ते हैं | किसी-किसी की बालकवत् चेष्टा दिखायी देती है | उनके सांसारिक कार्य छूट जाते हैं | कई ऐसी प्रकृति के भी प्रेमी पुरुष होते हैं जो अनन्य प्रेम में निमग्न रहनेपर महान भागवत श्रीभरतजी की भांति या भक्तराज हनुमान जी की भांति सदा ही ‘रामकाज’ करने को तैयार रहते हैं | ऐसे भक्तों के सभी कार्य लोकहितार्थ होते हैं | ये महात्मा एक क्षण के लिए भी परमात्मा को नहीं भुलाते, न भगवान् ही उन्हें कभी भुला सकते हैं | भगवान् ने कहा ही है—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||
(गीता ६ | ३०)
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७, गीताप्रेसगोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!