|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल ११,
गुरुवार, वि०स० २०७१
*** अनन्य प्रेम ही भक्ति है ***

ऐसा विशुद्ध प्रेम होनेपर जो आनन्द होता
है कि उसकी महिमा अकथनीय है | ऐसे प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का
अनन्य प्रेमी ही जानता है | प्रेम की साधारणतः तीन संज्ञाएँ है—गौण, मुख्य और
अनन्य | जैसे नन्हे बछड़े को छोड़कर गौ वन में चरने जाती है, वहाँ घास चरती है, उस
गौ का प्रेम घास में गौण है; बछड़े में मुख्य है और अपने जीवन में अनन्य है, बछड़े के
लिए घास का एवं जीवन के लिए वह बछड़े का भी त्याग कर सकती है | इसी प्रकार उत्तम
साधक सांसारिक कार्य करते हुए भी अनन्य-भाव से परमात्मा का चिन्तन किया करते हैं |
साधारण भगवत्प्रेमी साधक अपना मन परमात्मा में लगाने की कोशिश करते हैं; परन्तु
अभ्यास और आसक्तिवश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयों में चला ही जाता है | जिनका भगवान् में मुख्य-प्रेम है वे हर समय भगवान् को स्मरण
रखते हुए समस्त कार्य करते हैं और जिनका भगवान्
में अनन्य-प्रेम हो जाता है उनको तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेवमय ही प्रतीत
होने लगता है | ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ हैं (गीता ७ | १९) |
इस प्रकार अनन्य प्रेमी भक्तों में कई
तो प्रेम में इतने गहरे डूब जाते हैं कि वे लोकदृष्टि में पागल-से दीख पड़ते हैं |
किसी-किसी की बालकवत् चेष्टा दिखायी देती है | उनके सांसारिक कार्य छूट जाते हैं |
कई ऐसी प्रकृति के भी प्रेमी पुरुष होते हैं जो अनन्य प्रेम में निमग्न रहनेपर
महान भागवत श्रीभरतजी की भांति या भक्तराज हनुमान जी की भांति सदा ही ‘रामकाज’
करने को तैयार रहते हैं | ऐसे भक्तों के सभी कार्य लोकहितार्थ होते हैं | ये महात्मा
एक क्षण के लिए भी परमात्मा को नहीं भुलाते, न भगवान् ही उन्हें कभी भुला सकते हैं
| भगवान् ने कहा ही है—
यो मां
पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं
न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||
(गीता ६ | ३०)
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘प्रेमयोगका तत्त्व’ पुस्तकसे कोड ५२७,
गीताप्रेसगोरखपुर
नारायण !
नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!