***परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी
गोयन्दका ‘सेठजी’ के विषय में श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज के उद्गार***
वे (श्रीजयदयालजी गोयन्दका ‘सेठजी’) एक सर्वहितकारी सदभावना
को लेकर यहाँ आये थे | उनके हृदय में सभी के कल्याण की अभिरुचि थी, उसी में रत
रहें | सर्वहितकारी सदभावना उसी के जीवन में पोषित
होती है, पुष्ट होती है जिसे अपने लिए कुछ करना नही रहता |....जिसे अपने
लिए कुछ करना रहता है वह दूसरों के साथ सहयोग तो रख सकता है, लेकिन परपीड़ा को इतना
गहराई के साथ अपना ले कि जिसकी अपनी कोई पीड़ा न रह जाए | जो परसेवा के लिए कुछ बचा
के न रखे ये सामर्थ्य सर्वसमर्थ प्रभु उन्ही महापुरुषों को देते हैं, जिन्हें
सचमुच अपने लिए कुछ करना नहीं रहता | उन्हीं की प्रत्येक प्रवृत्ति सर्वहितकारी
प्रवृत्ति होती है | ऐसा मैं मानता हूँ |......उनकी करुणा कहें उदारता कहें उनमें
रहती थी | श्रोता उनको इतने प्यारें लगते थे कि वे सदैव चाहते थे कि वक्ता लोग
बोलते रहे, श्रोता सुनते रहे | बहुत ही उनकी इस बात में निष्ठा थी कि आपलोग
सतचर्चा में, सदचिन्तन में, सतकर्म में रत रहें | ऐसी उनकी भावना सदैव रहती थी और
जैसी भावना रहती थी वैसा वे करते भी थे | वे निरंतर प्रयत्नशील रहते थे और कराना
भी वही पसंद करते थे | वे कभी-कभी कहते थे कि मैं ये चाहता था कि मानव जाति में
कर्मयोगियों की, ज्ञानयोगियों की, भक्तियोगियों की टोली-की-टोली हो | ऐसा वें
चाहते थे | और उसी के लिए अथक प्रयत्नशील थे | और उनके संपर्क से साधकों का
निर्माण भी हुआ | भाईजी (श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार ‘भाईजी’) अमर हैं तो
उन्हीं की दिव्य विभूति हैं, उन्हीं की निर्मिती हैं | स्वामीजी महाराज (श्रद्धेय स्वामी
श्रीरामसुखदासजी महाराज) को उनके जीवन से बहुत ही लाभ हुआ है | और भी ऐसे गुप्त
लोग होंगे, बहुत-से ऐसे हैं जिनका अब शरीर नहीं है | कुछ हैं भी और कुछ ऐसे भी
होंगे जिन्हें हमलोग नहीं जानते है | तो यह मानना पड़ता है मजबूर होकर तर्क से भी,
युक्तिसे भी, दलील से भी कि उनके जीवन से समाज का हित हुआ | इसमें मेरे जानते दो
मत नहीं हैं | अब आप कहे साहब उनकी बात सभी तो नहीं मानते ?, सभी बात किसकी मानते
हैं बताओं जरा? जिनको लोग अवतार कहते हैं उनकी बात सब मानते हैं क्या ? वैसे तो
जितने लोग मानते हैं किसी भी महापुरुष को उसमें बहुत-कम ऐसे होते हैं जो सचमुच
मानते हैं , नहीं तो कोई किसी अंश में मानता है, कोई किसी अंश में मानता है | अगर
सभी बातें सतपुरुषों की मानी जाती तो आज ईसाईयों में करोड़ों ईशा ही ईशा दिखाई
देते, बुद्धिस्टों में करोड़ो बुद्ध दिखाई देते | भगवान् शंकराचार्य के पथपर पर
चलनेवालों के जीवन में करोड़ों शंकराचार्य दिखाई देते, सो तो नहीं दिखाई देते | लेकिन
अपनी-अपनी रूचि, योग्यता-सामर्थ्य के अनुसार आंशिक
प्रभाव होता है आरम्भ में, और फिर वह साधक
स्वयं अपने ही द्वारा उस आंशिक प्रकाश को पाकर अपने पथपर चलने लगता है | इस
अध्यात्म जीवनमें जीवन भर
पराधीनता नहीं रहती | आरम्भ में थोड़े सहयोग की आवश्यकता होती है और फिर
प्रत्येक साधक स्वतः चलने लगता है और आरम्भमें
जो प्रकाश महापुरुषों के द्वारा, सदग्रंथो के द्वारा मिलता है वह साधक आजीवन उस
प्रकाश की महिमा गाता है, अपनाता है किन्तु
ऐसा मेरा विश्वास है कि आगे चलकर सभी में वह चीज बीज रूपसे मौजूद है कि जिसके
द्वारा अपने चरम लक्ष्यतक पहुँच सकते हैं | देखिये जो चीज अपने में होती है वही चीज
जब बाहर से मिलती है तब उसमें जल्दी दृढ़ता और सफलता होती है | जिस बीज में
उपजने की शक्ति होती हैं, भूमि, जल, सूर्य, वायु उसी को उपजाते है | भुने हुए बीज
को नही उपजाते | सत्पुरुषों की सदभावना तो सदैव सर्वत्र सभी पर समान रूप से रहती
है पर जो जितना अधिकारी है उतना उसको लाभ होता है | पर कुछ-न-कुछ लाभ सभी को होता
है | मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि सत्पुरुषों के विरोध से भी लाभ होता है | समर्थन
से तो होता ही है | विरोध से भी होता है , क्यों ? सम्पर्क जो हो जाता है | लाभ तो
सम्पर्क का है न ! सम्पर्क दोनों तरह से होता है विरोध करके भी होता है और समर्थन
करके भी होता है | लेकिन एक बात कभी नहीं भूलना चाहिए, मेरे जानते हुए मानव जीवन
के लिए बड़ी उपयोगी है और वह यह कि मिठाई लाख तरह की हो महाराज ! लेकिन मीठापन
उसमें चीनी (शक्कर) का ही निकलेगा | तो सत्पुरुष में
जो सामर्थ्य होती है वह उसी अद्वितीय परमात्मा की होती है | सत्पुरुष श्रद्धा-विश्वास के स्थान पर प्रभु का ही
श्रद्धा-विश्वास प्रदान करते है, विचार के स्थान पर निज ज्ञान का आदर कराते हैं |
कर्त्तव्य के स्थान पर बल के सदुपयोग की निष्कामभाव से प्रेरणा देते है | यही
भगवद-आदेश भी है, सन्देश भी है | तो सत्पुरुष क्या हुए ? भगवान् के भेजे
हुए एक सन्देश वाहक | सत्पुरुष प्रभु की बात कहते हैं, ज्ञान की बात कहते हैं ,
कर्तव्य की बात कहते हैं | उसी कर्तव्य का एक नाम धर्मविज्ञान है | उसी ज्ञान का
नाम अध्यात्मविज्ञान है | उसी श्रद्धा का नाम आस्थाविज्ञान है | गोयन्दकाजी के
जीवन में ये तीनों रास्ते स्वतन्त्र पथ
हैं | वैसे तो हमलोग सुना करते थे कि विचारशील ऐसा कहते थे कि ज्ञान एक रास्ता है,
कर्म और उपासना उसके सहयोगी साधन हैं | ऐसा प्रायः सुनने में आता था | और यह बात
बहुत प्रसिद्ध है कि कर्म से मल का, उपासना से विक्षेप का, ज्ञान से आवरण का नाश
होता है | बहुत प्रचलित बात है यह | संसार में कुछ लोग ऐसे आते हैं जिनका अपना एक
दृष्टिकोण होता है और वे संसार के पथप्रदर्शक होते हैं | इसमें कोई संदेह की बात
नहीं है | गोयन्दकाजी का एक अपना दृष्टिकोण ऐसा भी था कि वे इन तीनों पथों को
स्वतन्त्र पथ मानते थे | मेरे जानते, मैंने जो समझा वह कहता हूँ बाकी मैंने कभी
एकांत में उनसे बात नहीं की, कभी साधन सम्बन्धी चर्चा नही की | उनके व्याख्यान
आपलोग जैसा सुनते थे, मैं भी सुनता था और जब वे आज्ञा देते थे तब बोलता भी था, जब
बुलाते थे तब आता भी था | मेरी कमजोरियों को वे अपनी उदारता से निभाते भी थे |
इसलिए मेरा उनका सम्बन्ध बना रहा और ये नियम है कि जो एक दूसरे की कमजोरी को नहीं
निभाता वह सम्बन्ध कभी रख ही नही सकता | तो उनकी
उदारता के लिए जितना कहा जाय कम है, परपीड़ा के लिए जितना कहा जाय कम है | उनकी
अपनी मान्यता के अनुसार निष्ठा के लिए जितना कहा जाय कम है | मेरा निवेदन केवल यह था कि वे दुनियां के उन गिने-चुने हुए लोगों
में से थे जो केवल अपने लिए ही नहीं आते, सभी के लिए आते हैं | जो सभी के लिए नहीं
आता, वह सतत सर्वहितकारी प्रवृत्ति सुरक्षित रख नहीं सकता | आपने-हमने-सभीने देखा
कि अन्ततक उनकी सर्वहितकारी प्रवृत्ति ज्यों-की-त्यों चलती रही | जो
महापुरुष सर्वहितकारी भावना रखते हैं, उन्हें अपने लिए कुछ करना रहता होगा, ऐसा
मैं मानता नहीं हूँ | बाकी भाई रहता हो, और जो अपने लिए उपयोगी हो जाते हैं वे
सबके लिए उपयोगी होते है | ऐसा मैं मानता हूँ | अपने लिए उपयोगी होना यह पहली बात
है, दूसरों के लिए उपयोगी होना यह दूसरी बात है | तो पहली बात को बिना अपनाये
दूसरी बात को जीवनभर चला नहीं सकता | इससे यह सिद्ध तो होता ही है कि उन्हें सचमुच
अपने लिए कुछ करना नहीं था | अगर उन्हें अपने लिए करना होता तो बहुत से लोग उन्हें
सलाह देते थे उनके निकटवर्ती कि “भाईजी आप प्रवृत्ति छोड़ दीजिये, ये कर दीजिये, वो
कर दीजिये |’’ सबकी सुनते थे पर वे अपनी निष्ठा में रत रहते थे | इससे यह सिद्ध
होता है कि वे जो कुछ करते थे वह स्वभावसिद्ध था, सहज था, स्वभाविक था | उनको कोई
सोच-समझकर नहीं करना पड़ता था | यह बात उन्हीं लोगों में होती है जो अपनी ओर देखते
रहते हैं और सजग रहते हैं | वे सजग रहने के बड़े पक्षपाती थे | श्रद्धा के नामपर वे
प्रभु के नाम की, प्रभु के धाम की, प्रभु की लीला की बात प्रायः कहते थे |....उनके
जीवन से हमें अपनी रूचि की बात ले लेना चाहिए | यह भी मैं आपसे निवेदन करना चाहता
हूँ कि कोई रोगी चाहे कि हम सारे औषधालय को जान लें, और सारी औषधियाँ खा लें यह
कभी सम्भव नहीं होगा भाई ! हाँ, चाहे सद्ग्रंथो को सामने रखकर सोचिये, चाहे
सत्पुरुषों को सामने रखकर सोचिये, और चाहे अपने निज विवेक को सामने रखकर सोचिये |
हमें और आपको उनके पावन जीवन से कोई एक ऐसी बात जो रूचिकर हो, जिसमें संदेह न हो,
जो सामर्थ्य के अनुसार हो अगर उसी को ले लेंगे तो हमसबका कल्याण होगा | वैसे तो
प्रभु की महिमा जितनी गायी जाए, उनके भक्तों की महिमा जितनी गायी जाए, उनकी
वेदवाणी-गीतावाणी की महिमा जितनी गायी
जाए, कम है, कभी कोई पूरी कर नहीं सका | मेरा ऐसा विश्वास है कि उनके जीवन में
बहुत-सी चीजे ऐसी थीं जिनमे से कोई एक भी अपना सके तो हमारा सर्वतोमुखी विकास जरुर
होगा | अब ये बात आप ही को तय करनी होगी
कि आप उनके जीवनमें से कौनसी बात लेना चाहते हैं | जो
बात आपको खूब जँचती हो, यानी जिसमें आपको संदेह की गंध भी न हो, खूब रुचती हो यानी
मनभाती हो, सामर्थ्य के अनुसार मालुम होती हो, उस एक बात को अपनाईये | उस एक बात
को अपनाने से जब सत्य आपके सामने आएगा तो पूरा आएगा अधुरा नहीं आएगा | आप
किसी चारपाई की एक पाया पकड़कर खींचिए तो तीन पाये उसके साथ खींचकर आते हैं | सत्य की ओर बढ़ने के लिए आरम्भ में कोई एक बात अपनाता है साधक,
लेकिन जब सत्य की उपलब्धि होती है तो पूरा सत्य उसे मिल जाता है | इस
दृष्टि से अगर विचार किया जाय तो बड़े ही हर्ष की बात है कि भाईजी हैं, स्वामीजी
महाराज हैं जिन्होंने उनका बहुत-ही सम्पर्क किया है और सच्चाई के साथ किया है और
ऐसे ढंग से किया है कि उन्होंने कोशिश की है अपने को उस तरह का बनाने का और बनाया
भी है, मुझे इसमें कोई संदेह है नहीं |
....यह मैं
आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि किसी भी
महापुरुष की चर्चा करते हुए उनके उसी भागको को कहना चाहिए जो अपने को पसंद आता हो,
क्यों ? किसी की पूरी जानकारी किसी को होती नहीं | वे प्रायः कहा करते थे कि “मैं
जैसा अनुभव करता हूँ, वैसा मेरी बुद्धि में आ नहीं पाता, जैसा बुद्धि में आता है
वह मन में नहीं आता, जैसा मन में आता है वह इन्द्रियों में नहीं आता और जैसा
इन्द्रियों में आता है आपलोग उतना पकड़
नहीं पाते |’’ यह उन्हीं की प्रणाली है बात करने की | तो मैं
आपसे निवेदन करता हूँ कि महापुरुषों के साथ हमें सम्बन्ध जोड़ना चाहिए उनकी किसी एक
बात को मानकर, अपनाकर | इससे बड़ा लाभ होता है | महापुरुषों का किया हुआ साधन
अन्तरिक्ष में व्याप्त रहता है उसका कभी नाश नहीं होता | तो जो लोग उनके चरित्र
से, उनके जीवन से, उनके कथन और चिन्तन से, जिस किसी एक चीज को अपनाएंगे वह
अंतरिक्ष में व्यापक साधन सब आपके व्यक्तित्व में अवतरित होगा | इस दृष्टि से
महापुरुषों की महिमा का बड़ा भारी स्थान है | .....मैं आपको स्मरण दिलाना
चाहता हूँ कि वह महिमा उनके शरीर की नहीं हैं, वह महिमा उनकी भाषा की नही है, वह
महिमा उनकी योग्यता की नही है | वह महिमा उनके
उसकी है कि जिसके द्वारा वे हमारा आपका
सम्बन्ध प्रभु से जोड़ देते हैं | या देहमान मिटा देते हैं, या बुराई को बुराई करके
दिखा देते हैं और बुराईरहित करने में बल देते हैं | इस बात की महिमा है | हमसे
भूल होती है कि हम महापुरुषों के उस आतंरिक स्वरुप को भूल जाते हैं, और जो
बाह्यस्वरूप है, यहाँ तो खैर उन्होंने तो फोटो आदि खिंचवाया नहीं लेकिन आप देखिये न ईशा के नामपर करोड़ो मकान है,
करोड़ों चित्र है, करोड़ों आदमी उनके पीछे चलते हैं लेकिन ईशा की क्षमाशीलता, ईशा का
प्रभु विश्वास, ईशा का अक्रोध, कितने लोग अपना पाते हैं !....जब गाँधी जी कमर में
घड़ी बांधने लगे, तो उनके पीछे चलनेवाले भी बाँधने लगे, वे घुंटने तक धोती पहनने
लगे तो लोग भी पहनने लगे | तो इन बाहरी बातों में हम जो अनुसरण करते है और जो
आंतरिक बात हमारे लायक थी उसपर ध्यान नहीं देते हैं इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता
| एक रूढ़िगत ऐसी परम्परा फैल जाती है कि हम उनके नामपर सच पूछियेगा माफ़ कीजियेगा
अपने व्यक्तित्व का ही पोषण करते हैं | महापुरुषों के सम्पर्क में आकर हमें अपने
व्यक्तित्व का पोषण नहीं करना चाहिए
|....बड़ा कठिन होता है मजहब के नाम पर, इज्म के नामपर न जाने हम कहाँ-कहाँ
अपने उस व्यक्तित्त्व का इतना पोषण करने लगते हैं, जैसे कुछ लोगों को गौरव होता था
परिचय देते कि साहब ये सज्जन इतने दिन गांधीजी के साथ रहे | यानी लोग समझते हैं कि
इसमें हमारा एक महत्त्व आ गया | क्षमा करेंगे आप, विचार करेंगे धीरज के साथ कि बड़ी
भारी भूल हो जाती है | इससे महापुरुषों का अपमान ही हम करते हैं, उनसे दूर ही होते
हैं | इसलिए सोचना यह चाहिए कि अमुक महापुरुष से हमको
क्या मिला, हमें उनके जीवन से कौन-सी ऐसी बात पसंद आई जो हमारे जीवन में अभिन्न हो
गयी हो | इस दृष्टि से महापुरुषों का चिन्तन करना, महापुरुषों की महिमा गाना, उनका
चरित्र सुनना बड़े काम की चीज है लेकिन केवल उन्हीं बातों में लग जाना जो
ऊपरी बातें थीं तो मेरे जानते यह तो हम उनकी स्तुति नहीं करते, उनकी महिमा नहीं
गाते अपितु अपनी भूल में उन्हें शामिल करते हैं | इस दृष्टि से आप सोचिये उनकी जो
निष्ठाएं थीं, वे एकदेशीय साधन के पक्षपाती नहीं थें, जहाँ वे कर्मयोग की महिमा
गाते थे, वहाँ वे ज्ञानयोग की भी महिमा गाते थे, वहाँ वे भक्तियोग की भी महिमा
गाते थे | जहाँ निर्गुण-निराकार की चर्चा करते थे, वहां सगुण-साकार की भी करते थे,
सगुण-निराकार की भी करते थे | मैंने उनकी विचारधारा में एकदेशियता की आसक्ति जैसा
कि लोग कहते हैं कि बिना इसके काम नहीं चलेगा ऐसा आग्रह शायद नहीं देखा
|.......मुझे ऐसा मालूम पड़ता था कि वे जरुर चाहते थे कि जो
भाई जो बहन जिस प्रकार की रूचि रखती हो, जिस प्रकार की योग्यता और सामर्थ्य रखती
हो, उसी साधन से उसका विकास होना चाहिए और सच पूछिये तो यही सनातनधर्म है |
मैं सनातनधर्म और मजहबों में जो एक भेद मानता हूँ वह यही कि सनातनधर्म सर्वमान्य धर्म इसलिए है कि उसमे व्यक्तिगत
भिन्नता के आधार पर साधन भेद की बात कही गयी है | गोयन्दका जी के जीवन से
भी मुझे कुछ ऐसा ही मालूम होता था | इस दृष्टि से वे सनातनधर्म के स्तम्भ थें |
सनातनधर्मी थे | सनातन धर्म किसी एक व्यक्ति के आधार पर
नहीं चला है, यह तो उसपर चला है जो सनातन है और सनातन कौन है ? वही जिसका कभी नाश
नहीं होता, और जिसका नाश नहीं होता, वह अब भी है |
कुछ लोग कहा करते है कि भाई बिना शास्त्रीयज्ञान के काम
नहीं चलेगा | मैं ऐसा मानता हूँ , मेरे गुरु का वाक्य भी यही था और गोयन्दकाजी के
जीवन में भी मुझे यही बात दिखती थी | वेद की जो श्रुति है आप जानते है वह केवल पाठशाला
में ही नहीं पढ़ी जाती, वह मौन होकर भी पढ़ी जाती है | एकांत में पढ़ी जाती है | जो साधक प्रभु के होकर रहते है, जिनकी बुद्धि प्रभु की
महिमा में ठहरती है, उनका मन निर्विकल्प होता है, उनकी इन्द्रियाँ विषयविमुक्त
होती हैं और उनके व्यक्तित्त्व में भी उसी श्रुति भगवती के ज्ञान का प्रादुर्भाव
होता है जिसका बड़े-बड़े विद्वान कथन-चिन्तन करते हैं | यह फर्क हो जाता है
कि विद्वान लोग रूचि-भेद से, योग्यता-भेद से अनेक अर्थ करते हैं और जो लोग केवल
सीधा डायरेक्ट प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़कर जो ज्ञानका प्रकाश पाते हैं, वे अनेक
अर्थ नहीं करते है | वे अपने अर्थ पर दृढ़ रहते हैं | उनका जीवन और अर्थ एक हो जाता
है | क्यों ? क्योंकि उन्होंने डायरेक्ट सम्बन्ध जो कर लिया | मेरे जानते
गोयन्दकाजी में भी ऐसा ही कुछ प्रभु विश्वास था | वे
प्रभु की कृपा का भरोसा बहुत बड़ा भरोसा मानते थे | वे प्रभु के होकर रहने को बहुत पसंद करते थे | प्रभु का नाम उनको बहुत
प्यारा था | प्रभु की महिमा उनको बहुत प्यारी थी | बड़े-बड़े ऊँचे भाव भी
उनके प्रति साधको के थे और हैं | कई बहन कहती थीं कि आज मालूम होता है सेठजीको
रोनेको जी चाहता है इसलिए भरतजी का प्रेम सुना रहे हैं | ......मेरे कहने का मतलब
था कि उनका सीधा-साधा सम्बन्ध प्रभु के साथ था ऐसा मैं मानता हूँ, ऐसा मेरे मनपर
प्रभाव है बाकी तो वे जाने, प्रभु जाने, आप जाने |....उनकी
महिमा प्रभु की महिमा है, प्रभु की महिमा उनकी महिमा है | प्रभु उनको प्यारे थे,
वे प्रभु को प्यारे थे | इसी सदभावना के साथ मैं आपको प्रणाम करता हूँ |
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