※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 27 जून 2014

कर्मयोग -४


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण , अमावस्या, शुक्रवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -४ 

गत ब्लॉग से आगे....फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदआज्ञानुसार समत्वभाव से किये हुए साधन के नाश होने का कोई भी कारण नही है । फल की इच्छा से किया हुआ कर्म ही फल देकर समाप्त हो जाता है ।

निष्काम कर्मयोग के पालन में त्रुटी रहने पर भी उसका उलटा फल अर्थात कर्ता का अनिष्ट नही होता तथा न पालन करने से वह दोष का भी भागी भी नही होता ।

निष्कामकर्म योगरूप धर्म का थोडा भी पालन संस्कार के बल से क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर अन्त में साधक को मुक्त कर देता है ।

निष्कामभाव का परिणाम संसार से उद्धार करना है । अत: वह अपने परिणाम को सिद्ध किये बिना न तो नष्ट होता है और न उसका कोई दूसरा फल ही हो सकता है । अन्त में वह साधक को पूर्ण निष्कामी बना कर उसका उद्धार कर ही देता है । यही इसका महत्व है ।

केवल कंचन एवं कामिनी के बाहरी त्याग से ही मनुष्य सर्वत्यागी नही होता, वास्तव में कंचन-कामिनी का बाहरी त्याग निष्काम कर्मयोग के साधन में उतना आवश्यक भी नही है, उसमे तो भाव की प्रधानता है ।

निष्काम कर्मयोग में स्त्री, पुत्र और धनादि से मिलने वाले विषय-भोग रूप सुख के त्याग के साथ-साथ मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा एवं राग, द्वेष, अहंता, ममता आदि के त्याग की बड़ी आवश्यकता है । जब तक इन सबका त्याग नही होता, तब तक साधक को पूरा लाभ नही मिल सकता ।....शेष अगले ब्लॉग में

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!