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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण , अमावस्या, शुक्रवार,
वि० स० २०७१
कर्मयोग -४
गत ब्लॉग से आगे....फल और आसक्ति को त्यागकर
भगवदआज्ञानुसार समत्वभाव से किये हुए साधन के नाश होने का कोई भी कारण नही है । फल
की इच्छा से किया हुआ कर्म ही फल देकर समाप्त हो जाता है ।
निष्काम कर्मयोग के पालन में
त्रुटी रहने पर भी उसका उलटा फल अर्थात कर्ता का अनिष्ट नही होता तथा न पालन करने
से वह दोष का भी भागी भी नही होता ।
निष्कामकर्म योगरूप धर्म का थोडा
भी पालन संस्कार के बल से क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर अन्त में साधक को मुक्त
कर देता है ।
निष्कामभाव का परिणाम संसार से
उद्धार करना है । अत: वह अपने परिणाम को सिद्ध किये बिना न तो नष्ट होता है और न
उसका कोई दूसरा फल ही हो सकता है । अन्त में वह साधक को पूर्ण निष्कामी बना कर
उसका उद्धार कर ही देता है । यही इसका महत्व है ।
केवल कंचन एवं कामिनी के बाहरी
त्याग से ही मनुष्य सर्वत्यागी नही होता, वास्तव में कंचन-कामिनी का बाहरी त्याग
निष्काम कर्मयोग के साधन में उतना आवश्यक भी नही है, उसमे तो भाव की प्रधानता है ।
निष्काम कर्मयोग में स्त्री, पुत्र
और धनादि से मिलने वाले विषय-भोग रूप सुख के त्याग के साथ-साथ मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा
एवं राग, द्वेष, अहंता, ममता आदि के त्याग की बड़ी आवश्यकता है । जब तक इन सबका
त्याग नही होता, तब तक साधक को पूरा लाभ नही मिल सकता ।....शेष
अगले ब्लॉग में
-सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष
८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!