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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण , चतुर्दशी, गुरुवार,
वि० स० २०७१
कर्मयोग -३
गत ब्लॉग से आगे....उत्तम उदेश्य अर्थात परमात्मा
की प्रसन्नता का लक्ष्य रखकर कर्म करने चाहिये । ऐसा उदेश्य रखना पाप नही । इच्छा,
कामना, आसक्ति और ममता ही पाप का मूल है ।
धार्मिक कर्म करने की इच्छा करने
में कोई दोष नही, पर उन कर्मों के फल की इच्छा नही करनी चाहिये ।
स्वार्थरहित उत्तम कर्म करने की
इच्छा निर्मल पवित्र इच्छा है, यह कर्मों को सकाम नही बनाती ।
स्वार्थरहित धर्मपालन की इच्छा
विधेय है और उसके फल की इच्छा त्याज्य है ।
नवीन कर्मों में मनुष्य की
स्वतंत्रता है, इसलिये यह उनके फल का भागी समझा जाता है । ईश्वर या प्रारब्ध की
इसमें कोई जबरदस्ती नही है ।
निष्काम कर्मयोग का जो इतना
महात्मय है, वह कर्मों की महत्ता के हेतु से नहीं है, वह महात्मय है कामना के
त्याग का-सब कुछ भगवदअर्पण करने के वास्तविक भाव का ।
बड़े-से-बड़ा सकाम कर्म मुक्तिप्रद
नही हो सकता, परन्तु छोटे-से-छोटे कर्म में जो निष्काम भाव है, वह मुक्ति देने
वाला होता है ।
कर्मयोग का रहस्य बड़ा ही गहन है ।
इसका वास्तविक तत्व या तो श्रीपरमेश्वर जानते है या वे महापुरुष भी जानते है,
जिन्होंने कर्मयोग द्वारा परमेश्वर (परमात्मा) को प्राप्त कर लिया है । ....शेष अगले ब्लॉग में
-सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष
८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!