※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 26 जून 2014

कर्मयोग -३


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण , चतुर्दशी, गुरुवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -३

गत ब्लॉग से आगे....उत्तम उदेश्य अर्थात परमात्मा की प्रसन्नता का लक्ष्य रखकर कर्म करने चाहिये । ऐसा उदेश्य रखना पाप नही । इच्छा, कामना, आसक्ति और ममता ही पाप का मूल है ।

धार्मिक कर्म करने की इच्छा करने में कोई दोष नही, पर उन कर्मों के फल की इच्छा नही करनी चाहिये ।

स्वार्थरहित उत्तम कर्म करने की इच्छा निर्मल पवित्र इच्छा है, यह कर्मों को सकाम नही बनाती ।

स्वार्थरहित धर्मपालन की इच्छा विधेय है और उसके फल की इच्छा त्याज्य है ।

नवीन कर्मों में मनुष्य की स्वतंत्रता है, इसलिये यह उनके फल का भागी समझा जाता है । ईश्वर या प्रारब्ध की इसमें कोई जबरदस्ती नही है ।

निष्काम कर्मयोग का जो इतना महात्मय है, वह कर्मों की महत्ता के हेतु से नहीं है, वह महात्मय है कामना के त्याग का-सब कुछ भगवदअर्पण करने के वास्तविक भाव का ।

बड़े-से-बड़ा सकाम कर्म मुक्तिप्रद नही हो सकता, परन्तु छोटे-से-छोटे कर्म में जो निष्काम भाव है, वह मुक्ति देने वाला होता है ।

कर्मयोग का रहस्य बड़ा ही गहन है । इसका वास्तविक तत्व या तो श्रीपरमेश्वर जानते है या वे महापुरुष भी जानते है, जिन्होंने कर्मयोग द्वारा परमेश्वर (परमात्मा) को प्राप्त कर लिया है । ....शेष अगले ब्लॉग में

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!