※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 25 जून 2014

कर्मयोग -२


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण , त्रयोदशी, बुधवार, वि० स० २०७१

कर्मयोग  -२

गत ब्लॉग से आगे....इश्वरार्थ और इश्वरार्पण-दोनों ही प्रकार के कर्म मुक्ति को देने वाले है ।

यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा या जीविका आदि के सभी कर्म इश्वरार्थ ही करने चाहिये ।

जैसे सच्चा सेवक (मुनीम, गुमाश्ता) प्रत्येक कार्य स्वामी के नाम पर, उसी के निमित, उसी की इच्छा के अनुसार करता हुआ किसी कर्म अथवा धम पर अपना अधिकार नही समझता और स्वप्न में भी किसी वस्तु पर उसके अन्तकरण में ममत्वका भाव न आने से वह न्याययुक्त की हुई प्रत्येक क्रिया में हर्ष-शोक से मुक्त रहता हैं, उसी प्रकार भगवान् के भक्त को उचित है की वह अपने अधिकारगत धन, परिवार आदि सामग्री को ईश्वर की ही समझकर उसकी आज्ञा के अनुसार उसी के कार्य में लगाने की न्याययुक्त चेष्टा करे और वह जो भी नवीन कर्म या क्रिया करे, उसे उसकी प्रसन्नता और आज्ञा के अनुकूल ठीक ठीक उसी प्रकार करे, जिस प्रकार बन्दर नट की इच्छा और आज्ञानुसार करता है ।

परम पिता परमेश्वर की आज्ञा पालन करते हुए, कर्मफल की इच्छा को त्यागकर केवल भगवतप्रीत्यर्थ कर्तव्य-पालनस्वरुप किये हुए कर्म निष्काम कर्म होते है, इनमे आसक्ति और ममता के लिए स्थान नही रहता । ....शेष अगले ब्लॉग में

   -सेठ जयदयाल गोयन्दका, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!