|| श्रीहरिः ||
आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, बुधवार, वि०सं० २०७४
शिक्षाप्रद पत्र-१
सादर हरिस्मरण | तुम्हारा पत्र
व्यवस्थापक, गीताप्रेस के नाम से दिया हुआ मिला | संसार को अनित्य, क्षणभंगुर मानव-शरीर
को दुर्लभ, विषयों को विषवत एवं भजन-साधन को अमृतवत समझते हुए भी तुम्हारी बुद्धि
भ्रमित-सी हो रही है तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह—आधिपत्य जमाये बैठे हैं, लिखा, सो मालूम
किया | बुद्धि का भ्रम दूर हो एवं काम-क्रोध, लोभ, मोह का समूल नाश हो जाय—नामोनिशान
न रहे, इसके लिए ईश्वर का भजन-ध्यान श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक नित्य-निरन्तर करने की
तत्परता से चेष्टा करनी चाहिए | ऐसा करने से शनैः-शनैः भ्रम का नाश होकर
काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि दुर्गुणों का भी नाश हो सकता है | गीता-तत्त्वांक या
गीता-तत्त्वविवेचनी टीका में अध्याय ९ श्लोक ३०-३१ और अध्याय १० श्लोक ९-१० और ११ की
व्याख्या देखनी चाहिए |
मन की चंचलता के विषय में कई बातें
लिखीं और लिखा कि भगवन्नाम जप करते समय भी मन इधर-उधर चला जाता है, सो मालूम किया |
इसके लिए भगवान् की शरण होकर रो-रोकर करुणभावपूर्वक भगवान् से स्तुति-प्रार्थना
करनी चाहिए | जप करते समय मन इधर-उधर चला जाय तो इसके
लिए सच्चा और वास्तविक दुःख होना चाहिए | संसार
को नाशवान, क्षणभंगुर, दु:खरूप तथा अनित्य समझकर इससे वैराग्य करना चाहिए एवं
भगवान् को सर्वगुणसंपन्न तथा आनन्द और शान्तिस्वरूप समझकर उनमें श्रद्धा और प्रेम
बढ़ाना चाहिए | इस प्रकार करने से मन धीरे-धीरे संसार से हटकर परमात्मा की ओर लग
सकता है | इन्द्रियों का तो इधर-उधर भागने का स्वभाव ही है, वे प्रमथनस्वभाववाली
है; किन्तु उनपर अधिक-से-अधिक सावधानीपूर्वक नियंत्रण रखना चाहिए | मन-इन्द्रियों
को अभ्यास और वैराग्य से वश में करना चाहिए | गीता-तत्त्वांक या गीता-तत्त्वविवेचनी
टीका में अध्याय ६ श्लोक ३५ और ३६ की व्याख्या देखनी चाहिए |
अपने स्वरुप को पहचानने एवं शान्ति
मिलने का उपाय पूछा, सो इसके लिए गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तकों का स्वाध्याय
करना चाहिए | ‘तत्त्वचिन्तामणि’ के सात और ‘परमार्थ-पत्रावली’ के चार भाग प्रकाशित
हो चुके हैं, इनका स्वाध्याय करना चाहिए | इनके अध्ययन से आपकी शंकाओं का समाधान
हो सकता है | सबसे यथायोग्य |
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी ‘शिक्षाप्रद पत्र’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!