※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 2 मई 2023

मेरा अनुभव

 

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

बैशाख शुक्ल द्वादशी, मंगलवार, वि०स० २०८०

 

मेरा अनुभव

         सभी सिद्धांतों से यही बात है कि मैं देह नहीं, आत्मा हूँ और भगवान् का चिदंश हूँ | ऐसा मानें तो भक्ति के मार्ग में विपरीत बात नहीं जाती | वास्तव में स्थूल शरीर से मृत्यु के समय सम्बन्ध-विच्छेद होता है और महाप्रलय में सूक्ष्म शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होता है | ज्ञान के सिद्धांत से आत्मा और प्रकृति का सम्बन्ध-विच्छेद होता है और परमात्मा में वह आत्मा मिल जाता है | भक्ति में जीव-ईश्वर का भेद नित्य है -भगवान् नित्य हैं | भक्तिमार्ग में माया अनादि और अनन्त है | सभी सिद्धान्त वाले स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का अन्त मानते हैं, कारण का नाश सब कोई नहीं मानते | तीन देहों में से दो देह के साथ सम्बन्ध-विच्छेद सभी मानते हैं | जीव परमात्मा का अंश है, भक्तिमार्ग में स्वामी-सेवक का भाव है | अंशांशी की मान्यता का भी आरोप है | केवल ज्ञान में तो अजातवाद है -सृष्टि और माया है ही नहीं और केवल भक्ति में  जीव, ईश्वर और प्रकृति सदा से हैं और सदा रहेंगे |

       मैं बाल्यावस्था में भगवान् के चित्र को सामने रखकर मुखारविंद पर दृष्टी रखता और भावना करता कि भगवान् में क्रिया हो रही है | भाव रखता कि इसमें से भगवान् प्रकट होंगे | इससे भगवान् का ध्यान रहना, प्रसन्नता रहनी स्वाभाविक थी | तस्वीर कागज और काँच के सिवाय कोई वस्तु नहीं, परन्तु श्रद्धा और भाव से भगवद्विषयक ध्यान रहता था | मूर्ति चाहे पाषाण कि हो, चाहे कागज़ की -वास्तव में श्रद्धा-भाव से मूर्ति चेतन हो जाती है और साक्षात्-स्वरुप उसमें से प्रकट हो जाता है | छोटी अवस्था में साधु-महात्माओं का बहुत संग किया | मै तर्कशील था, इसलिए साधुओं के दर्जे के अनुरूप उनमें श्रद्धा करता था | परमात्मा को प्राप्त पुरुष बहुत कम मिले | अच्छे-अच्छे साधक तो बहुत मिले | गीता-शास्त्र आदि में जो लक्षण बताये हैं, उनके मुताबिक जितने लक्षण जिनमें होते, उनमें उतनी श्रद्धा होती थी | इस कसौटी से बहुत-से अच्छे-अच्छे साधु भी छिपकर रह जाते थे |

         ईश्वर की दया सबपर है, उसको जो माने उसे विशेष मालूम पड़ती है | अपनी दृष्टी से सोचता हूँ तो यह मालूम पड़ता है कि मेरे ऊपर जितनी दया है, उतनी शायद ही किसी के ऊपर होगी | अपनी प्रतीति की बात कहता हूँ कि परमात्मा कि अपार दया है | मुझे ऐसी प्रतीति नहीं होती तो मैं भक्ति का विरोधी होता |  वेदान्त के ग्रन्थ, योगवासिष्ट, पंचदशी, विचार-सागर देखे थे, पर विचार-सागर, पंचदशी में मेरी श्रद्धा नहीं थी | मैं इनका प्रचार भी नहीं करता | शंकराचार्यजी के अद्वैत सिद्धान्त पर मेरी श्रद्धा थी | भक्तिमार्ग के ग्रन्थ- श्रीमद्भागवत, रामानुजाचार्य जी की टीका, माधवाचार्य जी की टीका छपवाने में, प्रचार करने में मेरा विरोध नहीं है | ज्ञान का मार्ग और भक्ति का मार्ग मुझे ऐसे प्रतीत होते हैं -मानों गाड़ी के दो पहिये हैं | ज्यादा लोगों के लिए सुगम भक्ति ही मालूम देती है | शास्त्रों ने ज्ञान के मार्ग को कठिन बताया है, पर मैं उतना कठिन नहीं मानता, हाँ, समूह के लिए कठिन मानता हूँ | मैं तो कहता हूँ कि मेरे ऊपर भगवान् कि विशेष कृपा नहीं होती तो मैं या तो वेदान्ती या नास्तिक बन जाता | भगवान् ने बचा लिया | मैं आधुनिक वेदान्त को नहीं मानता | मैं मर्यादा का बहुत पक्षपाती हूँ | मैं मर्यादा का भक्त हूँ | मुझे मर्यादा प्रिय है | अच्छे पुरुषों में मेरी श्रद्धा हुई, किन्तु जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हुई | यह बात मानता हूँ कि अग्निहोत्र नित्य करना चाहिए, पर मैं नहीं कर रहा हूँ यह मेरे में कमी है | माता-पिता की सेवा करनी बड़ी महत्त्व की चीज है | परन्तु मेरे व्यवहार में माता-पिता की सेवा में कमी मिलेगी -व्यवहार में कमी है | शास्त्रोचित व्यवहार को आदर देता हूँ | किन्तु मेरे से वैसा व्यवहार नहीं होता तो उतनी मेरे में कमी है | ‘आवश्यक नहीं है यह बात मैं नहीं मानता |

          मान, बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा के लिए जो दम्भ करता है वह राजसी है | नास्तिकता को लेकर जो दम्भ करता है वह तामसी है | इसी की ज्यादा निन्दा की गयी है | मैं ज्ञान के मार्ग की निन्दा नहीं करता हूँ | पर ज्ञान के मार्ग से गिरनेवाले निन्दा के पात्र हैं |

         प्रश्न-  भक्ति के मार्ग में आने में भगवान् की दया का क्या कारण है ?

       उत्तर-  यह कारण हो सकता है कि भक्ति के मार्ग की समय के अनुसार आवश्यकता है | कोई अन्धा गड्ढे की ओर जा रहा है तो कोई दयालु आदमी उसकी लकड़ी पकड़कर रास्ते पर लगा देता है, वैसे भगवान् ने आवश्यक समझकर किया है |

         निष्कामभाव, सत्यभाषण और मर्यादा -ये तीनों चीजें मेरी प्रकृति के अनुकूल ज्यादा पड़ी हैं | मर्यादा के अनुसार आचरण और सच्चाई प्रिय है | ये बातें होनी चाहिए, मनुष्य चाहे ज्ञान अथवा भक्ति किसी मार्ग से चले | भगवान् की सत्ता, निष्कामभाव, उत्तम आचरण, वैराग्य -ये एक-एक चीज बहुत उच्चकोटि की है |.....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव  पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!