|| श्रीहरिः ||
आज की
शुभतिथि-पंचांग
बैशाख
शुक्ल द्वादशी, मंगलवार, वि०स० २०८०
मेरा अनुभव
सभी सिद्धांतों से यही बात है कि मैं
देह नहीं, आत्मा हूँ और भगवान् का चिदंश हूँ |
ऐसा मानें तो भक्ति के मार्ग में विपरीत बात नहीं जाती | वास्तव में स्थूल शरीर से
मृत्यु के समय सम्बन्ध-विच्छेद होता है और महाप्रलय में सूक्ष्म शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद
होता है | ज्ञान के सिद्धांत से आत्मा और प्रकृति का सम्बन्ध-विच्छेद होता है और
परमात्मा में वह आत्मा मिल जाता है | भक्ति में जीव-ईश्वर का भेद नित्य है -भगवान्
नित्य हैं | भक्तिमार्ग में माया अनादि और अनन्त है | सभी सिद्धान्त वाले स्थूल और
सूक्ष्म शरीरों का अन्त मानते हैं, कारण का नाश सब कोई नहीं मानते | तीन
देहों में से दो देह के साथ सम्बन्ध-विच्छेद सभी मानते हैं | जीव परमात्मा का अंश
है, भक्तिमार्ग में स्वामी-सेवक का भाव है | अंशांशी की मान्यता का भी आरोप है |
केवल ज्ञान में तो अजातवाद है -सृष्टि और माया है ही नहीं और केवल भक्ति में जीव, ईश्वर और प्रकृति सदा से हैं और सदा रहेंगे |
मैं बाल्यावस्था में भगवान् के चित्र को सामने रखकर मुखारविंद पर दृष्टी रखता और भावना करता कि भगवान् में क्रिया हो रही है | भाव रखता कि इसमें से भगवान् प्रकट होंगे | इससे भगवान् का ध्यान रहना, प्रसन्नता रहनी स्वाभाविक थी | तस्वीर कागज और काँच के सिवाय कोई वस्तु नहीं, परन्तु श्रद्धा और भाव से भगवद्विषयक ध्यान रहता था | मूर्ति चाहे पाषाण कि हो, चाहे कागज़ की -वास्तव में श्रद्धा-भाव से मूर्ति चेतन हो जाती है और साक्षात्-स्वरुप उसमें से प्रकट हो जाता है | छोटी अवस्था में साधु-महात्माओं का बहुत संग किया | मै तर्कशील था, इसलिए साधुओं के दर्जे के अनुरूप उनमें श्रद्धा करता था | परमात्मा को प्राप्त पुरुष बहुत कम मिले | अच्छे-अच्छे साधक तो बहुत मिले | गीता-शास्त्र आदि में जो लक्षण बताये हैं, उनके मुताबिक जितने लक्षण जिनमें होते, उनमें उतनी श्रद्धा होती थी | इस कसौटी से बहुत-से अच्छे-अच्छे साधु भी छिपकर रह जाते थे |
ईश्वर की दया सबपर है, उसको जो माने उसे
विशेष मालूम पड़ती है | अपनी दृष्टी से सोचता हूँ तो यह मालूम पड़ता है कि मेरे ऊपर
जितनी दया है, उतनी शायद ही किसी के ऊपर होगी | अपनी प्रतीति की बात कहता हूँ कि
परमात्मा कि अपार दया है | मुझे ऐसी प्रतीति नहीं होती तो मैं भक्ति का विरोधी
होता | वेदान्त के ग्रन्थ, योगवासिष्ट,
पंचदशी, विचार-सागर देखे थे, पर विचार-सागर, पंचदशी में मेरी श्रद्धा नहीं थी |
मैं इनका प्रचार भी नहीं करता | शंकराचार्यजी के अद्वैत सिद्धान्त पर मेरी श्रद्धा
थी | भक्तिमार्ग के ग्रन्थ- श्रीमद्भागवत, रामानुजाचार्य जी की टीका, माधवाचार्य
जी की टीका छपवाने में, प्रचार करने में मेरा विरोध नहीं है
| ज्ञान का मार्ग और भक्ति का मार्ग मुझे ऐसे प्रतीत होते हैं -मानों गाड़ी के दो
पहिये हैं | ज्यादा लोगों के लिए सुगम भक्ति ही मालूम देती है | शास्त्रों ने
ज्ञान के मार्ग को कठिन बताया है, पर मैं उतना कठिन नहीं मानता, हाँ, समूह के लिए
कठिन मानता हूँ | मैं तो कहता हूँ कि मेरे ऊपर भगवान् कि विशेष कृपा नहीं होती तो
मैं या तो वेदान्ती या नास्तिक बन जाता | भगवान् ने बचा लिया | मैं आधुनिक वेदान्त
को नहीं मानता | मैं मर्यादा का बहुत पक्षपाती हूँ |
मैं मर्यादा का भक्त हूँ | मुझे मर्यादा प्रिय है | अच्छे पुरुषों में मेरी
श्रद्धा हुई, किन्तु जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हुई | यह बात मानता हूँ कि
अग्निहोत्र नित्य करना चाहिए, पर मैं नहीं कर रहा हूँ यह मेरे में कमी है |
माता-पिता की सेवा करनी बड़ी महत्त्व की चीज है | परन्तु मेरे व्यवहार में माता-पिता
की सेवा में कमी मिलेगी -व्यवहार में कमी है | शास्त्रोचित व्यवहार को आदर देता
हूँ | किन्तु मेरे से वैसा व्यवहार नहीं होता तो उतनी मेरे में कमी है | ‘आवश्यक
नहीं है’ यह बात मैं नहीं मानता |
मान, बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा के लिए जो दम्भ
करता है वह राजसी है | नास्तिकता को लेकर जो दम्भ करता है वह तामसी है | इसी की
ज्यादा निन्दा की गयी है | मैं ज्ञान के मार्ग की निन्दा नहीं करता हूँ | पर ज्ञान
के मार्ग से गिरनेवाले निन्दा के पात्र हैं |
प्रश्न- भक्ति के मार्ग में आने में भगवान् की दया का
क्या कारण है ?
उत्तर- यह कारण हो सकता है कि भक्ति के मार्ग की समय
के अनुसार आवश्यकता है | कोई अन्धा गड्ढे की ओर जा रहा है तो कोई दयालु आदमी उसकी
लकड़ी पकड़कर रास्ते पर लगा देता है, वैसे भगवान् ने आवश्यक समझकर किया है |
निष्कामभाव, सत्यभाषण और मर्यादा -ये
तीनों चीजें मेरी प्रकृति के अनुकूल ज्यादा पड़ी हैं | मर्यादा
के अनुसार आचरण और सच्चाई प्रिय है | ये बातें होनी चाहिए, मनुष्य चाहे ज्ञान अथवा
भक्ति किसी मार्ग से चले | भगवान् की सत्ता, निष्कामभाव, उत्तम आचरण, वैराग्य -ये
एक-एक चीज बहुत उच्चकोटि की है |.....शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!