※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 3 मई 2023

मेरा अनुभव

 

|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

बैशाख शुक्ल त्रयोदशी, मंगलवार, वि०स० २०८०

मेरा अनुभव



गत ब्लॉग से आगे....... मैं ज्ञान का वर्णन करता हूँ, तो सीढ़ी-दर-सीढ़ी साधन किया है | भक्ति के विषय में ज्यादा साधन नहीं- भगवान् की कृपा से है | एक तो प्रयत्न-साध्य है और दूसरा ईश्वर की कृपा से हो वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है | भक्ति के विषय में भगवान् की प्रेरणा हुई और ज्ञान का विषय अपने अभ्यास से हुआ | ईश्वर की भक्ति के विषय में, सगुण के तत्त्व के विषय में कोई अपनी विशेष जानकारी की बात कहे तो उसकी बात सुनकर कुछ हँसी-सी आती है | वह असली भक्ति के इर्द-गिर्द फिरता दीखता है | उनके वचन बिना जाने, अभिमान के वचन मालूम पड़ते हैं | अतएव मैं चुप रहता हूँ |

            कोई कहे भगवान् का भजन-ध्यान ठीक बनता है तो मैं समझता हूँ मूर्ख है, कुछ नहीं करता | उसपर आक्षेप नहीं करता -अपमान नहीं करता | कोई पूछे कि तुमको भगवान् के दर्शन हुए या नहीं तो उत्तर है कि इसका उत्तर देने में मैं लाचार हूँ | ऐसा प्रश्न किसी से नहीं करना चाहिए | प्रश्न करना मूर्खता है | इतना जानने मात्र से उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती | जो हमारे पास वर्षों से रहते हैं, उनके भी विशेष लाभ नहीं दीखता तो एकदम उसका उत्तर दे देने से लाभ कैसे होगा !

          समता अमृत है | जैसे बासे की पूड़ी में भेद-भाव नहीं है, उस पूड़ी को चाहे अमीर ले, चाहे साधु ले, एक-सी पूड़ी है, वह अमृत है | साधुओं के लिए तो बिना माँगे मिले वह वस्तु अमृत है | किन्तु गृहस्थों के लिए कोई चीज खरीदने पर ही अमृत होती है |

         मेरी सबसे यह प्रार्थना है कि शरीर सबका शान्त होता है | मेरा शरीर शान्त होनेपर सत्संग का सिलसिला चलता रहे | जिस उद्देश्य से मकान ( गीताभवन ) बनाया गया है, उसका उद्देश्य यही है कि यहाँ पर भजन, सत्संग होता रहे तभी उद्देश्य की पूर्ति होगी | यह स्थान, वटवृक्ष सब भगवान् की कृपा से कुदरती बने हुए हैं | ये जबतक कायम रहें, तबतक यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहे तो बहुत ही उत्तम बात है | मेरी तो यही प्रार्थना है कि भविष्य में यथाशक्ति कोशिश करें कि यह चले- यहाँ भजन, ध्यान और सत्संग तीनों चलें | संसार में भजन, ध्यान और सत्संग से बढ़कर कोई चीज मूल्यवान नहीं है |

              हर-एक को यह ध्यान रखना चाहिए कि भजन, ध्यान और सत्संग बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं, जो इसमें शामिल होता है उसे तो लाभ होता ही है | अतएव हर कोई भाई तन-मन से इसमें सहायता देता रहे तो बहुत फायदा है | धन की तो आवश्यकता नहीं है, क्योंकि धन तो जबरदस्ती आकर प्राप्त हो उसे स्वीकारना पड़ता है | इस काम में तन-मन लगाने की ही प्रेरणा की जाती है | जो कोई शरीर से यहाँ नहीं आ सकता वह मन तो दे सकता है | तन-मन से आत्मा के कल्याण में मदद दें | जन और धन वे ही कल्याण करनेवाले हैं जो भगवान् की प्राप्ति में मदद करने वालें हों |

           भगवान् के भावों का प्रचार करनेवाले पुरुष को भगवान् ने सबसे उच्चकोटि का पुरुष माना है | मैंने गीता में पढ़ा-

               न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |

               भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||  (१८ | ६९)

यह श्लोक मुझे बहुत अच्छा लगा | भगवान् ने यहाँ तक कह दिया कि जो गीतारूपी संवाद का संसार में प्रचार करता है, उसके समान दुनियाँ में मेरा प्यारा काम करनेवाला न है, न हुआ और न होगा | हनुमान के प्रति भगवान् राम ने यह बात कही है कि हे हनुमान मैं तुम्हारा ऋणी हूँ | हनुमान ने भगवान् की आज्ञा का पालन किया तो कहना पड़ा कि मैं ऋणी हूँ, उस ऋण से मैं मुक्त होना भी नहीं चाहता | वही बात खयाल में रखकर हनुमान जी वहाँ जाते हैं जहाँ रामायण की कथा हो | गीता, रामायण वास्तव में एक हैं, इसलिए यह बात कही जाती है कि गीता का प्रचार मूल, शब्द, अर्थ, भाव, पुस्तक-वितरण, विक्रय, आचरण से, व्याख्यान देकर तथा सुनकर- हर-एक प्रकार से संसार में प्रचार करना, विस्तार करना, भगवान् के उत्तम ध्येय का प्रचार करना सबसे उत्तम है | अन्य तो सेवा है, किन्तु यह परम सेवा है | परम सेवा परमात्मा की सेवा है | निष्काम प्रेमभाव से तन-मन-धन  हर-एक से यह कार्य करना चाहिए | जो मेरी बात जितनी मानता है, वह मुझे उतना ही प्रिय लगता है | स्त्री-पुत्र भी अनुकूल नहीं हों तो प्रिय नहीं है | जो अनुकूल हैं, वे सबसे बढ़कर हैं |  .....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव  पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!