|| श्रीहरिः ||
आज की
शुभतिथि-पंचांग
बैशाख
शुक्ल त्रयोदशी, मंगलवार, वि०स० २०८०
मेरा अनुभव
कोई कहे भगवान् का भजन-ध्यान ठीक
बनता है तो मैं समझता हूँ मूर्ख है, कुछ नहीं करता | उसपर आक्षेप नहीं करता -अपमान
नहीं करता | कोई पूछे कि तुमको भगवान् के दर्शन हुए या नहीं तो उत्तर है कि इसका उत्तर
देने में मैं लाचार हूँ | ऐसा प्रश्न किसी से नहीं करना चाहिए | प्रश्न करना मूर्खता
है | इतना जानने मात्र से उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती | जो हमारे पास वर्षों
से रहते हैं, उनके भी विशेष लाभ नहीं दीखता तो एकदम उसका उत्तर दे देने से लाभ
कैसे होगा !
समता अमृत है | जैसे बासे की पूड़ी में
भेद-भाव नहीं है, उस पूड़ी को चाहे अमीर ले, चाहे साधु ले, एक-सी पूड़ी है, वह अमृत
है | साधुओं के लिए तो बिना माँगे मिले वह वस्तु अमृत है | किन्तु गृहस्थों के लिए
कोई चीज खरीदने पर ही अमृत होती है |
मेरी सबसे यह प्रार्थना है कि शरीर सबका
शान्त होता है | मेरा शरीर शान्त होनेपर सत्संग का सिलसिला चलता रहे | जिस
उद्देश्य से मकान ( गीताभवन ) बनाया गया है, उसका उद्देश्य यही है कि यहाँ पर भजन,
सत्संग होता रहे तभी उद्देश्य की पूर्ति होगी | यह स्थान, वटवृक्ष सब भगवान् की
कृपा से कुदरती बने हुए हैं | ये जबतक कायम रहें, तबतक यह सिलसिला इसी प्रकार जारी
रहे तो बहुत ही उत्तम बात है | मेरी तो यही प्रार्थना है कि भविष्य में यथाशक्ति
कोशिश करें कि यह चले- यहाँ भजन, ध्यान और सत्संग तीनों चलें | संसार में भजन,
ध्यान और सत्संग से बढ़कर कोई चीज मूल्यवान नहीं है |
हर-एक
को यह ध्यान रखना चाहिए कि भजन, ध्यान और सत्संग बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं, जो
इसमें शामिल होता है उसे तो लाभ होता ही है | अतएव हर कोई भाई तन-मन से इसमें
सहायता देता रहे तो बहुत फायदा है | धन की तो आवश्यकता नहीं है, क्योंकि धन तो
जबरदस्ती आकर प्राप्त हो उसे स्वीकारना पड़ता है | इस काम में तन-मन लगाने की ही
प्रेरणा की जाती है | जो कोई शरीर से यहाँ नहीं आ सकता वह मन तो दे सकता है |
तन-मन से आत्मा के कल्याण में मदद दें | जन और धन वे ही कल्याण करनेवाले हैं जो
भगवान् की प्राप्ति में मदद करने वालें हों |
भगवान् के भावों का प्रचार करनेवाले
पुरुष को भगवान् ने सबसे उच्चकोटि का पुरुष माना है | मैंने गीता में पढ़ा-
न च
तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो
भुवि ||
(१८ | ६९)
यह श्लोक मुझे बहुत अच्छा लगा | भगवान्
ने यहाँ तक कह दिया कि जो गीतारूपी संवाद का संसार में प्रचार करता है, उसके समान
दुनियाँ में मेरा प्यारा काम करनेवाला न है, न हुआ और न होगा | हनुमान के प्रति
भगवान् राम ने यह बात कही है कि हे हनुमान मैं तुम्हारा ऋणी हूँ | हनुमान ने भगवान्
की आज्ञा का पालन किया तो कहना पड़ा कि मैं ऋणी हूँ, उस ऋण से मैं मुक्त होना भी
नहीं चाहता | वही बात खयाल में रखकर हनुमान जी वहाँ जाते हैं जहाँ रामायण की कथा
हो | गीता, रामायण वास्तव में एक हैं, इसलिए यह बात कही जाती है कि गीता का प्रचार
मूल, शब्द, अर्थ, भाव, पुस्तक-वितरण, विक्रय, आचरण से, व्याख्यान देकर तथा सुनकर-
हर-एक प्रकार से संसार में प्रचार करना, विस्तार करना, भगवान् के उत्तम ध्येय का
प्रचार करना सबसे उत्तम है | अन्य तो सेवा है, किन्तु यह परम सेवा है | परम सेवा
परमात्मा की सेवा है | निष्काम प्रेमभाव से तन-मन-धन हर-एक से यह कार्य करना चाहिए | जो मेरी बात
जितनी मानता है, वह मुझे उतना ही प्रिय लगता है | स्त्री-पुत्र भी अनुकूल नहीं हों
तो प्रिय नहीं है | जो अनुकूल हैं, वे सबसे बढ़कर हैं | .....शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, मेरा अनुभव पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!