※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

'प्रेमयोग का तत्त्व'


प्रेमका वास्तविक वर्णन हो नहीँ सकता।प्रेम जीवनको प्रेममय बना देता है।प्रेम गूँगेका गुड़ है।प्रेमका आनंद अवर्णनीय होता है।रोमांच,अश्रुपात,प्रकम्प
आदि तो उसके बाह्य लक्षण हैँ,भीतरके रस प्रवाहको कोई कहे भी तो कैसे?वह धारा तो उमड़ी हुई आती है और हृदयको आप्लावित कर डालती है।पुस्तकोँ मेँ प्रेमियोँकी कथा पढ़ते है;किँतु सच्चे प्रेमीका दर्शन तो आज दुर्लभ ही है।परमात्माका सच्चा परम प्रेमी एक ही व्यक्ति करोड़ो जीवोँको पवित्र कर सकता है।

बरसते हुए मेघ जिधरसे निकलते हैँ उधरकी ही धराको तर कर देते हैँ।इसी प्रकार प्रेमकी वर्षासे यावत् चराचरको तर कर देता है।प्रेमी के दर्शनमात्रसे ही हृदय तर हो जाता है और लहलहा उठता है।तुलसीदासजी महाराजने कहा है-

मोरेँ मन प्रभु अस विश्वासा।राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिँधु घन सज्जन धीरा।चंदन तरु हरि संत समीरा॥

समुद्रसे जल लेकर मेघ उसे बरसाते हैँ और वह बड़ा ही उपकारी होता है।भगवान समुद्र हैँ और संत मेघ।भगवानसे ही प्रेम लेकर संत संसारपर प्रेम बरसाते हैँ और जिस प्रकार मेघका जल नदियोँ,नालोँ से होकर पृथ्वीको उर्वरा बनाते हुए समुद्रमेँ प्रवेश कर जाता है,ठीक उसी प्रकार संत भी प्रेमकी वर्षा कर अंतमेँ प्रभुके प्रेमको प्रभुमेँ ही समर्पित कर देते हैँ।
प्रभु चंदनके वृक्ष हैँ और संत बयार(वायु)।जिस प्रकार हवा चंदन की सुगन्ध को दिग्दिगन्तमेँ फैला देती है,उसी प्रकार संत भी प्रभुकी दिव्य गन्धको प्रवाहित करते रहते हैं।संत को देखकर प्रभुकी स्मृति आती है,अतएव संत प्रभुके स्वरुप हैँ,इसी प्रकार श्रद्धालु पुरुष भी केवल संतोके ही आश्रय रहते हैँ।
प्रेमीके वाणी और नेत्र आदिसे प्रेमकी वर्षा होती रहती है।उसका मार्ग प्रेमसे पूर्ण होता है।वह जहाँ जाता है वहाँके कण-कणमेँ,हवामेँ,धूलिमेँ उसके स्पर्शके कारण प्रेम-ही-प्रेम दृष्टिगोचर होता है।उसका स्पर्श ही प्रेममय होता है,स्नेहसे ओतप्रोत होता है।

-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'
'प्रेमयोग का तत्त्व' नामक पुस्तक से

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

अनन्य प्रेम

ब्रजराज भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम होनेमेँ ही इस जीवनकी सार्थकता है।जिस बड़भागीने इस दिव्य,अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम-पीयूषका पान कर लिया,उसका जन्म सफल हो जाता है।उसकी युग-युग की,जन्म-जन्मोँकी विषय-पिपासा बुझ जाती,शांत हो जाती है।भवताप से सन्तप्त प्राणी भगवत्प्रेमकी पावन गंगामे निमज्जन करके ही पूर्ण शांति प्राप्त कर सकता है।यही वह परम रस है,जिसे पीकर मनुष्य सिद्ध,अमर और तृप्त हो जाता है।जिस प्रेमके प्राप्त होनेपर मनुष्य न तो किसी वस्तु की इच्छा करता है,न शोक करता है,न द्वेष करता है,न किसी भी वस्तुमेँ आसक्त होता है और न (विषयभोगोँकी प्राप्तिमेँ) उसे उत्साह होता है।

प्रेम साधन भी है और साधनोँका फल (साध्य) भी।परमात्माकी ही भाँति प्रेमका स्वरुप भी अनिर्वचनीय है,गूँगे के स्वादकी तरह यह वाणीका विषय नहीँ होता।इसलिए प्रेमका स्वरुप अलौकिक बतलाया गया है;क्योँकि वह लोकसे सर्वदा विलक्षण है।लौकिक प्रेम भोग-कामनाओँ और दुर्वासनाओँसे वासित होनेके कारण शुद्ध नहीँ होता।जहाँ वासनाका आधिपत्य है,वह प्रेम नहीँ,आसक्तिमूलक मोह है।इसके अतिरिक्त लौकिक प्रेमके आलम्बन क्षणिक एवं नाशवान होते है; अतः वह भगवत्प्रेमके सामने हेय ही है।भगवत्प्रेम भी यदि किसी कामनासे किया जाय तो वह सकाम कहलाता है।साकाम प्रेममेँ दिव्यता,अनन्यता एवं विशुद्धता का अभाव होता है।कामना लौकिक वस्तुके लिए ही होती है,अतः लौकिकताका सम्मिश्रण हो जानेसे उसकी दिव्यता नष्ट हो जाती है तथ उक्त कामनामेँ वह प्रेम बँट जाता है,इसलिए उसमेँ एकनिष्ठता एवं अनन्यता नहीँ रह जाती।इसी प्रकार कामनासे मिश्रित या दूषित हो जानेसे वह प्रेम विशुद्ध नहीँ रह पाता।दिव्य,अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम तो तीनोँ गुणोँसे अतीत और कामनाओँसे रहित होता है,वह प्रतिक्षण बढ़ता है,कभी घटता नहीँ,वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म होता है,उसे वाणीद्वारा व्यक्त नहीँ किया जा सकता,वह तो अनुभवकी वस्तु है।

हेतु या कामना ही प्रेमका दूषण है,निर्हेतुक अथवा निष्कामप्रेम मेँ कामनाकी गंध भी नही है,इसलिए यह शुद्ध है।अपने अभिन्न प्रियतम परमात्मा श्रीकृष्णके सिवा और कोई इस प्रेमका लक्ष्य नहीँ है,इसलिए यह अनन्य है तथा ऊपर कहे अनुसार लोकसे सर्वथा विलक्षण होनेके कारण यह प्रेम दिव्य है।

इस प्रेमको पाकर प्रेमी सदा आनंदमेँ मस्त रहता हैं।संसारकी चिँताएँ उसका स्पर्श भी नहीँ कर सकतीँ,उसकी दृष्टिमेँ प्रेमके सिवा और कुछ रह ही नहीँ जाता।वह तो प्रेमको ही देखता,प्रेमको ही सुनता और प्रेमका ही वर्णन तथा चिँतन करता है।उसके मन,प्राण और आत्मा प्रेमकी ही गंगामे अनवरत अवगाहन करते रहते है।वह अपने सब धर्म और आचरणप्रेममय श्रीकृष्णको ही अर्पण कर देता है।उनकी पलभरके लिए भी याद भूलनेपर वह अत्यंत व्याकुल-बहुत बेचैन हो जाता है। वह सर्वत्र प्रेममय भगवानको ही देखता है, सब कुछ भगवानमेँ ही देखता है, ऐसी दृष्टि रखनेवालेकी नजरसे भगवान अलग नहीँ हो सकते तथा वह भी भगवानसे अलग नहीँ हो सकता।

इस प्रकार दोनोँका नित्य ऐक्य-शाश्वत संयोग बना रहता है। भगवान ऐसे भक्तका लोकोत्तर अनुराग देख अपनी महेश्वरता भूल जाते और मुग्ध होकर अपने प्राणप्रिय भक्तको निहारते रहते है, उसके साथ उसी के अनुरुप बनकर उसकी इच्छाके अनुकूल विग्रह धारण कर खेलते, नृत्य करते, गाते-बजाते और आनंदित होते रहते हैँ।
-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'
'प्रेमयोग का तत्त्व' पुस्तक से

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

प्रेमसे ही प्रभु मिलते हैँ।


भगवान जल्दी से जल्दी कैसे मिलेँ-यह भाव जाग्रत रहने पर ही भगवान मिलते हैँ।यह लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती चलें।ऐसी उत्कट इच्छा ही प्रेममयके मिलनेका कारण है और प्रेमसे ही प्रभु मिलते हैँ।प्रभुका रहस्य और प्रभाव जाननेसे ही प्रेम होता है।थोड़ा सा भी प्रभुका रहस्य जाननेपर हम उसके बिना एक क्षणभर भी नहीँ रह सकते। पपीहा मेघको देखकर आतुर होकर विह्वल हो उठता हैँ।ठीक उसी प्रकार हमेँ प्रभुके लिए पागल हो जाना चाहिए।हमेँ एक-एक पल उसके बिना असह्य हो जाना चाहिए। मछलीका जलमेँ,पपीहे का मेघमेँ,चकोरका चंद्रमामे जैसा प्रेम है वैसा ही हमारा प्रेम प्रभुमेँ हो।एक पल भी उसके बिना चैन न मिले,शान्ति न मिले।ऐसा प्रेम प्रेममय संतो की कृपासे ही प्राप्त होता है।चंदनके वृक्षकी गंधको लेकर वायु समस्त वृक्षोँको चंदनमय बना देता है।बनानेवाली तो गंध ही है परंतु वायुके बिना उसकी प्राप्ति नहीँ हो सकती।इसी प्रकार संतलोग आनंदमयके आनंदकी वर्षा कर विश्वको आनंदमय कर देते हैँ,प्रेम और आनंदके समुद्रको उमड़ा देते हैँ।गौरांग महाप्रभु जिस पथसे निकलते थे,प्रेमका प्रवाह बहा देते थे।गोस्वामीजी की लेखनीमेँ कितना अमृत भरा पड़ा है।पर ऐसे प्रेमी संतोके दर्शन भी प्रभुकी पूर्ण कृपा से होते हैँ।प्रभु की कृपा तो सबपर पूर्ण है ही,किँतु पात्र बिना वह कृपा फलवती नहीँ होती।शरणागत भक्त ही प्रभुकी ऐसी कृपाके पात्र है,अतएव हमेँ सर्वभावसे भगवानके शरण होना चाहिए।सर्वथा उसका आश्रित बनकर रहना चाहिये।सब प्रकारसे उसके चरणोँमेँ अपनेको सौँप देना चाहिए।भगवानने कहा है-

 तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिँ स्थानं प्राप्स्यति शाश्वतम्।। (गीता 18.62)

 'हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वरकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो।उसकी कृपासे ही परम शांतिको और सनातन परम धामको प्राप्त होगा।'

मनसे,वाणीसे और कर्म से शरण होना चाहिए।तभी समर्पण होता है यानी उस परमेश्वरको मनसे भी पकड़ना चाहिए,वाणीसे भी पकड़ना चाहिए और कर्मसे भी पकड़ना चाहिए।उनके किए हुए विधानोँमेँ प्रसन्न रहना,उनके नाम,रुप,गुण और लीलाओँका चिँतन करना मनसे पकड़ना है।नामोच्चारण करना,गुणगान करना वाणीसे पकड़ना है और उनके आज्ञानुसार चलना कर्मसे यानी क्रियाओ से पकड़ना है।

-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी' 'प्रेमयोगका तत्त्व' पुस्तकसे

प्रेमभक्तियोग का तत्त्व




हमारा मन वहीँ लगता है,जहाँ हमारी अभिलाषितवस्तु होती है,जहाँ हमेँ अपनी रुचिके अनुकूलसुख,सौन्दर्य,माधुर्य,ऐश्यवर्यआदि दिखायी देते है।विचार करके देखनेसे पता लगता है कि जगत मेँ हम जो प्रियवस्तु,सुख,सौन्दर्य,माधुर्य,ऐश्वर्यआदि देखते है,उन सभीका पूर्ण अमित अनन्तभण्डार श्रीभगवान् हैँ।समस्त वस्तुएँ,समस्तगुण,समस्त सुख-सौन्दर्य भगवानकेकिसी एक अंशके प्रतिबिम्बमात्र हैँ।उसमहान् अनंत अगाध सागरके सीकर-कणकी छायामात्रा हैँ।हमेँ जो वस्तुजितनी चाहिए,जब चाहिए,वही वस्तुउतनी ही और उसी समय भगवानमेँ मिल

सकती है;क्योँकि वे सदा उनसे अनंतरुपसेभरी हैँ और चाहे जितनी निकालली जानेपर भी कमी उनकी अनंतता मेँकमी नहीँ आती।अतएव हमारा मन जिसकिसी मेँ लगता हो,उसी को दृढ़ विश्वासके साथ भगवानमेँ  देखना चाहिए।फिर हमकभी भगवानसे अलग नहीँ होँगे और भगवान हमसे अलग नहीँ होँगे;क्योँकि सबकुछ भगवानसे,भगवानमेँ है तथा भगवत्स्वरुपही है।भगवान ने कहा है-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वँ च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे प्रणश्यमि।। (गीता6.30)

'जो पुरुष संपूर्ण भूतोँमेँ सबके आत्मरुप मुझवासुदेवको ही व्यापक देखता है और संपूर्णभूतोँको मुझ वासुदेवके अंतर्गतदेखता है,उसके लिए मैँ अदृश्यनहीँ होता और वह मेरे लिए अदृश्यनहीँ होता।भाव यह कि वह मुझे देखता रहता है और मैँ उसे देखता रहता हूँ।'

इसीके साथ हमेँ अपनेको ऐसा बनाना चाहिए,जो भगवानको अत्यंतप्रिय हो।गीतामेँ 12वेँ अध्यायके 13वेँसे 19वेँ श्लोकतक भगवान ने अपने प्रियभक्तके लक्षणोँका वर्णन किया है।और अंतमेँ कहा है-

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे
प्रियाः।। (गीता12.20)

'परंतु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायणहोकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममयअमृतको निष्काम प्रेमभावसे सेवन करते हैँअर्थात् उस प्रकारका अपना जीवनबनानेमेँ तत्पर होते है,वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय है।'इसलिए हमेँ  अपनेमेँ  उन सब भावोँकी दृढ़स्थापना करनी चाहिए,जो भगवानको प्रियहैँ।ऐसा होनेपर जब भगवान् हमसे प्रेमकरने लगेँगे,उनका मन हममेँ लगा रहेगा-(प्रेम तो वे अब भी करते हैँ।परंतु हमेँ उनका अनुभव नही होता,उनके अनुकूल आचरण करनेसे अर्थात् उन सब प्रियगुणोँको जीवनमेँ  उतारनेसे हमेँ  भगवान केप्रेमका अनुभव होने लगेगा) तब हमारा मन भी उसमेँ लगा रहेगा।हमेँ तो बस,विनोदपूर्वक भगवानसे यही भावरखना चाहिए और यही मन-ही-मनकहना चाहिए कि 'प्रभो ! न तो मैँ दूसरेको देखूँगा और न आपको देखने दूँगा।'

आवहु मेरे नयन मेँ पलक बँद करि लेउँ।
ना मै देखौँ और कौँ ना तोहि देखन देउँ।।
नारायण जाके हृदै सुंदर स्याम समाय।
फूल-पात-फल-डार मैँ ता कौँ वही दिखाय।।


-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'

'प्रेमयोग का तत्त्व' नामक पुस्तक
से,गीताप्रेस गोरखपुर

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

सत्संग के मोती

Thursday, 20 October 2011
(कर्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

सत्संग के मोती
        भगवान की प्राप्तिके सिवा मनमेँ किसी भी बातकी इच्छा नहीँ रखनी चाहिए; क्योँकि कोई भी इच्छा रहेगी तो उसके लिए पुनर्जन्म धारण करना पड़ेगा। इसलिए इच्छा, वासना, कामना, तृष्णा आदिका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। बार-बार मन से पूछ लो कि 'बतला,तेरी क्या इच्छा है?' और मनसे यह उत्तर मिले कि 'कुछ भी इच्छा नहीँ है।' इस प्रकारके अभ्याससे इच्छाका नाश होता है। यह निश्चित बात है। - 'सत्संग की कुछ सार बातेँ' पुस्तक से
        जितना अज्ञान होता है उतनी स्थूलता होती है और जो पदार्थ जितना भारी होता है, वह उतना ही नीचे गिरता है,जितना हलका होता है उतना ही ऊपरको उठता है। अज्ञान ही बोझा है, जलके अत्यंत स्थूल होनेपर जब वह बर्फ बन जाता है तभी उसे नीचे गिरता पड़ता है, इसी प्रकार अज्ञानके बोझसे स्थूल हो जानेपर जीवको गिरना पड़ता है। ज्ञानरुपी तापके प्राप्त होते ही संसारका बोझ उतर जाता है और जैसे तापसे गलकर जल बननेपर और भी ताप प्राप्त होनेसे वह जल धूआँ या भाप होकर ऊपर उड़ जाता है, वैसे ही जीव भी ऊपर उठ जाता है। - 'कल्याणप्राप्ति के उपाय' (तत्त्वचिँतामणि भाग-1) पुस्तक से पृ॰सं॰64 
ईश्वरकी सत्तापर प्रत्यक्षसे बढ़कर विश्वास रक्खे; क्योँकि ईश्वरपर जितना प्रबल विश्वास होगा, साधक उतना ही पापसे बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा। -
 कर्त्तव्यका पालन न होनेपर तथा अपनेसे बुरा काम बन जानेपर पश्चात्ताप करे, जिससे कि फिर कभी वैसा न हो। कर्त्तव्यकर्मको झंझट मान लेनेपर वह भार-रुप हो जाता है, विशेष लाभदायक नहीँ होता। वही कर्म भगवानको याद रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक मुग्ध होकर किया जाय तो बहुत ऊँचे दर्जेका साधन बन जाता है। अकर्मण्यता (कर्त्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पापका प्रायश्चित है, किन्तु इसका नहीँ। अकर्मण्यताका त्याग ही इसका प्रायश्चित है। कर्त्तव्यपालनरुप परम पुरुषार्थ अर्थात भगवत्-शरणापन्न होकर प्रयत्न करना ही मुक्तिका मुख्य साधन है। - 'सत्संग की कुछ सार बातेँ' पुस्तक से।