※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

परमात्म-प्रेम कैसे प्राप्त हो?

                                                            
                                      ॥श्रीहरिः॥
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह प्रेम कैसे प्राप्त हो? इस संबंध मेँ गोस्वामीजी ने कहा है- 

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
 मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

किन्तु शोक है, हमलोगोँका प्रेम तो काञ्चन-कामिनी, मान-प्रतिष्ठामेँ हो रहा है। हम तो सच्चे प्रेमके लिए हृदयमेँ कभी कामना ही नहीँ करते। जबतक प्रेमके लिए हृदय तरस नही जाता, व्याकुल नहीँ होता, तबतक प्रेमकी प्राप्ति हो भी कैसे सकती है? अभी तो हमलोगोँ का कामी मन नारी-प्रेममेँ ही आनंदकी उपलब्धि कर रहा है। अभी तो हमलोगोँका लोभी चित्त काञ्चनकी प्राप्तिमेँ ही पागल है। अभी तो हमलोगोँका चञ्चल चित्त मान-बड़ाई के पीछे मारा-मारा फिरता है। जबतक हमलोगोँका यह काम और लोभ सब ओरसे सिमटकर एक मात्र प्रभुके प्रति नहीँ हो जाता, तबतक हम प्रभुके प्रेमको प्राप्त भी कैसे कर सकते है?

प्रेमी मूक रहते हुए भी भाषण देता है। मानो उसका अंग-अंग बोलता है। उसके सभी अवयवोँसे मानो एक शुद्ध संकेत, एक निर्मल ध्वनि निकलती है। प्रेमी उपदेश देने नही जाता, वह क्या बोले, कैसे बोले? गोपियोँने प्रेमकी शिक्षा किसे और कब दी थी? भरतजी ने भक्तिका उपदेश कब और किसे दिया? उनके चरित्र उपदेश देते रहे और देते रहेँगे। प्रेममेँ जिस अनन्यता और आत्मसमर्पणकी सराहना की गयी है, उसकी सजीव मूर्ति गोपियाँ है। इसी प्रकार रामायण मेँ उसके प्राणस्वरुप प्रेम-मूर्ति श्रीभरतजी है।

यह हमारा शरीर ही क्षेत्र है। इस खेतमेँ कर्मरुप जैसा बीज बोया जायगा वैसा ही फल उपजेगा। बीज तो परमात्माका प्रेमपूर्वक ध्यानसहित जप है। परंतु जलके बिना यह बीज उग नहीँ सकता। वह जल है हरि-कथा और हरि-कृपा। खेतमेँ गेहूँ बोनेसे गेहूँ और आम बोनेसे आम उपजता है। इसी प्रकार हृदयरुप खेतमेँ राम ही उपजेगा। हम प्रेमपूर्वक भगवानके ध्यान और जपका बीज बोयेँगे तो फलरुपमेँ हमेँ प्रेममय भगवान ही मिलेँगे। प्रेममय भगवानका साक्षात्कार ही इस बीजका फल है। साधारण बीज तो धूलिमेँ पड़कर नष्ट भी हो जाता है; परंतु निष्काम रामनामका वह अमर बीज कभी नष्ट नहीँ होता। जल है हरि-कथा और हरि-कृपा, जो संतोँके संगही प्राप्ति होती है। उस हरिकथा और हरिकृपासे ही हरिमेँ विशुद्ध प्रेम होता है, अतएव प्रेम की प्राप्तिका उपाय सत्संग ही है।

प्रभुमेँ हमारा प्रेम कैसा हो? श्रीरामका उदाहरण लीजिए। भगवान श्रीराम लता-पत्तासे पूछते हैँ-'तुमने मेरी सीताजीको देखा है?' गोपियोँको देखिये, वे वन-वन 'कृष्ण-कृष्ण' पुकार-पुकारकर अपने हृदयधन को खोज रही हैँ। जितनी ही अधिक तीव्र उत्कण्ठा प्रेममेँ होती है उतना ही शीघ्र प्रेममय ईश्वर मिलते है।