॥ श्रीहरिः ॥
*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*
(१) भगवद्भक्तोँ द्वारा श्रीभगवानके गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातेँ सुननेसे अति शीघ्र प्रेम हो सकता है । भक्तोँके संगके अभावमेँ शास्त्रोँका अभ्यास ही सत्संग के समान है ।
(२) श्रीपरमात्माके नामका जप निष्कामभावसे और ध्यानसहित निरंतर करनेके अभ्याससे भगवानमेँ प्रेम हो सकता है ।
(३) श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है ।
(४) श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमेँ प्रेम हो सकता है । शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिए ।
(५) भगवानके प्रेमी भक्तोँसे सुनी हुई और शास्त्रोँमेँ पढ़ी हुई श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातेँ निष्कामभावसे लोगोँमेँ कथन करनेसे भगवानमेँ बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है ।
*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*
(१) भगवद्भक्तोँ द्वारा श्रीभगवानके गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातेँ सुननेसे अति शीघ्र प्रेम हो सकता है । भक्तोँके संगके अभावमेँ शास्त्रोँका अभ्यास ही सत्संग के समान है ।
(२) श्रीपरमात्माके नामका जप निष्कामभावसे और ध्यानसहित निरंतर करनेके अभ्याससे भगवानमेँ प्रेम हो सकता है ।
(३) श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है ।
(४) श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमेँ प्रेम हो सकता है । शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिए ।
(५) भगवानके प्रेमी भक्तोँसे सुनी हुई और शास्त्रोँमेँ पढ़ी हुई श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातेँ निष्कामभावसे लोगोँमेँ कथन करनेसे भगवानमेँ बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है ।
उपर्युक्त पाँचोँ साधनोँमेँ से यदि एकका भी भलीभाँति आचरण किया जाय तो प्रेम होना संभव है ।
मान-अपमानको समान समझकर निष्कामभावसे सबको भगवानका स्वरुप जानकर सबकी सेवा करनी चाहिए ।
योँ करनेसे भगवत्कृपासे आप ही प्रेम हो सकता है । सबमेँ भगवानका भाव होनेपर किसीपर भी क्रोध नहीँ हो
सकता है ।
यदि क्रोध होता है तो समझना चाहिए कि अभी वह भाव नहीँ हुआ । चित्तमेँ कभी उद्वेग नहीँ होना चाहिए । जो
कुछ हो, उसीमेँ आनंद मानना चाहिए, क्योँकि सभी कुछ उस प्रभुकी आज्ञासे और उसके मतके अनुकूल ही होता है ।
यदि प्रभुके अनुकूल होता है तो फिर हमको भी उसकी अनुकूलतामेँ अनुकूल ही रहना चाहिए । उस परमात्माके
प्रतिकूल और उसकी आज्ञा बिना कुछ भी होना संभव नहीँ, इस प्रकार निश्चय करके प्रभुकी प्रसन्नतामेँ प्रसन्न
होकर सब समय आनंदमेँ मग्न रहना चाहिए । (परमार्थ-पत्रावली-भाग-१)
मान-अपमानको समान समझकर निष्कामभावसे सबको भगवानका स्वरुप जानकर सबकी सेवा करनी चाहिए ।
योँ करनेसे भगवत्कृपासे आप ही प्रेम हो सकता है । सबमेँ भगवानका भाव होनेपर किसीपर भी क्रोध नहीँ हो
सकता है ।
यदि क्रोध होता है तो समझना चाहिए कि अभी वह भाव नहीँ हुआ । चित्तमेँ कभी उद्वेग नहीँ होना चाहिए । जो
कुछ हो, उसीमेँ आनंद मानना चाहिए, क्योँकि सभी कुछ उस प्रभुकी आज्ञासे और उसके मतके अनुकूल ही होता है ।
यदि प्रभुके अनुकूल होता है तो फिर हमको भी उसकी अनुकूलतामेँ अनुकूल ही रहना चाहिए । उस परमात्माके
प्रतिकूल और उसकी आज्ञा बिना कुछ भी होना संभव नहीँ, इस प्रकार निश्चय करके प्रभुकी प्रसन्नतामेँ प्रसन्न
होकर सब समय आनंदमेँ मग्न रहना चाहिए । (परमार्थ-पत्रावली-भाग-१)