※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*

॥ श्रीहरिः ॥


*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*


(१) भगवद्भक्तोँ द्वारा श्रीभगवानके गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातेँ सुननेसे अति शीघ्र प्रेम हो सकता है । भक्तोँके संगके अभावमेँ शास्त्रोँका अभ्यास ही सत्संग के समान है । 

(२) श्रीपरमात्माके नामका जप निष्कामभावसे और ध्यानसहित निरंतर करनेके अभ्याससे भगवानमेँ प्रेम हो सकता है ।

(३) श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है ।

(४) श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमेँ प्रेम हो सकता है । शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिए ।

(५) भगवानके प्रेमी भक्तोँसे सुनी हुई और शास्त्रोँमेँ पढ़ी हुई श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातेँ निष्कामभावसे लोगोँमेँ कथन करनेसे भगवानमेँ बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है ।




उपर्युक्त पाँचोँ साधनोँमेँ से यदि एकका भी भलीभाँति आचरण किया जाय तो प्रेम होना संभव है । 


मान-अपमानको समान समझकर निष्कामभावसे सबको भगवानका स्वरुप जानकर सबकी सेवा करनी चाहिए ।


 योँ करनेसे भगवत्कृपासे आप ही प्रेम हो सकता है । सबमेँ भगवानका भाव होनेपर किसीपर भी क्रोध नहीँ हो 
सकता है । 


 यदि क्रोध होता है तो समझना चाहिए कि अभी वह भाव नहीँ हुआ । चित्तमेँ कभी उद्वेग नहीँ होना चाहिए । जो 
कुछ हो, उसीमेँ आनंद मानना चाहिए, क्योँकि सभी कुछ उस प्रभुकी आज्ञासे और उसके मतके अनुकूल ही होता है ।


यदि प्रभुके अनुकूल होता है तो फिर हमको भी उसकी अनुकूलतामेँ अनुकूल ही रहना चाहिए । उस परमात्माके 
प्रतिकूल और उसकी आज्ञा बिना कुछ भी होना संभव नहीँ, इस प्रकार निश्चय करके प्रभुकी प्रसन्नतामेँ प्रसन्न 
होकर सब समय आनंदमेँ मग्न रहना चाहिए । (परमार्थ-पत्रावली-भाग-१)