※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 14 जुलाई 2012

भक्त की महिमा......2

|| श्री हरी || 

भक्त की महिमा......2.....
कई  पुरुष द्रव्य संबंधी  यज्ञ करने वाले है ,कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले है तथा दुसरे कितने ही योग रूप यज्ञ करनेवाले है और कितने हे अहिन्सादी तीक्ष्ण  व्रतओ से युक्त यत्न सील पुरुष स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ करने वाले है | इस प्रकार भगवान् ने कितने  ही यज्ञ बतलाये है | (गीता ४|२८) यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापो से मुक्त हो जाते है और जो पापी लोग अपने शरीर पोसन करने के लिए ही अन्न पकाते है वे तोह पाप को ही खाते है | (गीता ३|१३) वह यज्ञ के नाम से बात बताई, वही योगी के नाम से कहते है | जो मेरे अंदर श्रद्धा प्रेम रखकर भजता है , हे अर्जुन ! वह सब योगिओ में श्रेस्ठ है | यही बात बारहवे अध्याय में भी कही है (गीता १२|२) मुझमे  मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिसय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर सगुण रूप परमेश्वर को भजते है वे मुझको योगिओ में अत्ति उत्तम योगी मान्य है |

जितने भी प्रकार के साधक है, उन सबमे वह साधक युक्ततम  है जो मेरे में श्रद्धा रखकर मुझको भजता है | यही बात योग में बताई तथा अभ्यास,वैराग्य की बात बताई | इनसे मन वश में होता है | यह नहीं हो सके तो जप ध्यान करे | यही बात गीता , रामायण, भागवत में मिलती है | सब शास्त्रो का यही कहना है | अत एव हमको भगवान् के नाम का जप और भगवान् के स्वरुप का ध्यान करना चाहिये |उससे हमारे सब दुर्गुण और दुराचार का  नाश हो जायेगा | भगवान् जगह जगह कहते है -(गीता १८|६२) हे भारत ! तू सब तरह से उस परमेश्वर की ही शरण में आ जा | उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा परम धाम को प्राप्त होगा | (गीता १८|६५)  हे अर्जुन ! तू मुझमे मन वाला हो , मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर | ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझे प्रतिज्ञा करता हु ; क्युकी तू मेरा अत्यंत प्रिय है | मेरी भक्ति करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा | मैं सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हु तू मुझे प्राप्त करेगा | गीता में यही बात है |

इस घोर कलिकालमें इश्वर के भक्ति को सबसे बढ़कर उपाय है | इस भक्ति से ज्ञान वैराग्य स्वत ही आ जायेगे | भगवत में यही बात आयी है   के भक्ति जवान और उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य बूढ़े हो गए है , यह भक्तिका प्रभाव है | हमलोग उत्तम आचरण और सद्गुण संग्रह के चेष्टा करते है , पर जहा भक्ति होती है वह सद्गुण सदाचार स्वत ही आ जाते है | जैसे वृक्ष के फल आते है तोह वृक्ष झुक जाता है | वैसे ही भक्त अपने को छोटा समजह्ता है यदि अपमे भक्ति निवास करेगी तोह गुणों की कमी नहीं रहेगी | भक्ति में कमी है तोह गुणों में कमी है |
तुलसीदास जी कहते है -
राम भक्ति  मनी उर बस जाके |     दुःख लवलेश न सपनेहु ताके !
बसही भागती मानि जेहि उर माहि | खल कामदी निकट नहीं जाही |
जिसके ह्रदय में भक्ति निवास करती है, उसके ह्रदय में स्वप्न में भी दुःख एवं कामादि क्लेश नहीं रह सकते, फिर जाग्रत की तोह बात ही क्या है ? काम, क्रोध ,लोभ, मोह, भय,चिंता,शोक आदि अन्नत आसुरी सम्पदा के अवगुण उसी प्रकार पास नहीं आ सकते जैसे सूर्य के सामने अन्धकार नहीं जा सकता | सिंह के सामने कोई पशु नहीं जा सकता |
गरल सुधा सम आरी हित होई | तेहि मनी बिनु सुख पाँव न कोई ||
भक्ति का इतना प्रभाव है, जहा भक्ति है वह अहंकार नहीं रह सकता | उसका वैरी आये तोह वह सामने हाथ जोड़ कर खड़ा रहता है ,फिर वह वैरी नहीं रहता |  (शेष अगले पोस्ट में .....)

सेठ श्री जयदयाल जी गोयन्दका ...साधन की आवश्यकता ...गीताप्रेस गोरखपुर ....पुस्तक कोड ११५०

नारायण   !!!!!!!!!        नारायण  !!!!!!!!!!     नारायण!!!!!!!!!!!!