※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

भगवान के चिंतन का महत्त्व - ५

प्रवचन नंबर १८.

केवल सत्संग से भी कल्याण हो सकता है | भगवान ने गीताजी (१३/२५) में भी कहा है की –
जो मंदबुद्धि वाले पुरुष हैं वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए, दूसरों से अर्थात तत्व को जाननेवाले पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं, अर्थात उन पुरुषों के कहने के अनुसार ही श्रद्धा सहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुनने के परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार सागर को नि:संदेह तर जाते हैं |

ज्ञानयोग, ध्यानयोग, कर्मयोग से तो कल्याण होता ही है, किन्तु जिसमें विवेक नहीं है ऐसा पुरुष भी जो जाननेवाला पुरुष है उसके पास जाकर सुनता है और यथायोग्य आचरण भी करता है, उसका भी कल्याण हो जाता है | इसी प्रकार केवल भगवान के नामजप से भी कल्याण हो जाता है | और कैसा भी पापी हो उसका सत्संग से तो कल्याण हो ही जाता है | तुलसीदासजी कहते हैं – 

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धारिय तुला एक अंग |
तूल ना ताहि सकल मिली जो सुख लव सत्संग ||
अर्थ – हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते जो क्षण मात्र के सत्संग से मिलता है|

और क्या कहते हैं तुलसीदासजी – 

बिनु सत्संग ना हरी कथा तेहि बिनु मोह ना भाग |
मोह गंए बिनु राम पद होई ना दृढ अनुराग ||
अर्थ – सत्संग के बिना हरिकी कथा सुननेको नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में अचल प्रेम नहीं होता | सब प्रकारसे यही बात सिद्ध होती है कि सत्संग करना चाहिए |

पुण्य पुंज बिनु मिलहिं ना संता | सत्संगति संसृति कर अंता||
अर्थ – और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते | सत्संगति ही संसृति (जन-मरण के चक्र) का अंत करती है |

इसी प्रकार से नाम की महिमा है | नामका तो ऐसा प्रभाव है कि उससे पापी-से-पापी भी तर जाते हैं | भगवानके नाम का प्रभाव देखो, कैसा अद्भुत है | ऐसा नाम रहते हुए हमें दुःख रूप शरीर में फिर आना पड़े, यह बड़ी लज्जाकी बात है | नामकी कैसी महिमा गई है | तुलसीदासजी कहते हैं - 

अपतु अजामिलु गजू गनिकाऊ | भये मुकुत हरी नाम प्रभाऊ||
अर्थ – नीच अजामिल, गज, गनिका (वेश्या) भी श्रीहरी के नामके प्रभाव से मुक्त हो गए |

कहों कहाँ लगी नाम बडाई | रामू न सकहिं नाम गुण गाई ||
अर्थ – मैं नाम की बडाई कहाँ तक कहूँ, स्वयं राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते | राम से बढ़कर राम-नाम है |

राम एक तापस तीय तारी | नाम कोटि खल कुमति सुधारी ||
अर्थ – श्रीरामजी ने एक तपस्वी स्त्री (अहिल्या) को ही तारा, परन्तु नाम ने करोडों दुष्टों की बिगड़ी बुद्धि को सुधार दिया|

भगवान के भजन से ही कल्याण हो जाता है | फिर भगवान का ध्यान भी साथ में होता रहे तो क्या बात है ! और सत्संग मिलता रहे तो भजन ध्यान तेजी के साथ होते हैं | इसलिए हमें कटिबद्ध होकर साधन तेजी के साथ करना चाहिए | 



नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण....
[पुस्तक 'भगवन्नाम महिमा एवं परम सेवा का महत्त्व' श्री जयदयाल जी गोयन्दका ] शेष अगले ब्लॉग में ....