प्रवचन नंबर १६.
इन्द्रियों की पवित्रता करनी चाहिए | नेत्रोंकी पवित्रता क्या है ? माता-बहनों को अच्छी दृष्टि से देखें | अपनेसे बड़ी हो तो उसे माता और बराबरवाली हो तो उसे बहन समझें | सबमें इश्वर देखें तो हमारे नेत्रों की विशेष पवित्रता है |
“जो बहुत जन्मों के अंतके जन्ममें तत्त्व ज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात वासुदेव के सिवाय और कुछ भी नहीं, इस प्रकार मेरेको भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है |” (गीताजी ७/१९)
बहुतसे जन्मों के अन्तमें ज्ञानवान पुरुष मुझको प्राप्त होता है | किन्तु वासुदेव सब जगह है ऐसा माननेवाला महात्मा बहुत दुर्लभ है | बहुतसे जन्म तो हमारे हो चुके | यदि हम इसी जन्ममें परमात्मा की प्राप्ति करलें तो यही हमारा अंतिम जन्म हो जाए | सबमें भगवद-बुद्धि हो जाए, सबको भगवान समझकर सेवा करें, तो हाथ पवित्र हो जाए | कान पवित्र होते हैं – भगवानके गुण, प्रभाव एवं प्रेमकी बातें सुननेसे | मिथ्या बातें सुननेसे तो कान दूषित हो जाते हैं | दोषोंको इकट्ठा करके ले जायेंगे तो फोनोग्राम की तरह खींचे जायेंगे | वासुदेव: सर्वमिति ऐसा उच्च्भाव रखना चाहिए | वाणीसे किसीको भी गाली नहीं देनी चाहिए | किसीको गाली देनेसे, निंदा करनेसे, मिथ्या भाषण से वाणी दूषित होती है | ये संस्कार मरनेपर साथ जायेंगे | वानिके द्वारा भगवानके नाम, गुणोंका स्वाध्याय हो तो वाणी परम पवित्र हो जाए, तब तो हमारा इसी जन्ममें कल्याण हो जाए |
ये इन्द्रियाँ यदि यहांपर इसी जन्ममें ही शुद्ध हो जाय तो यहीं प्राप्ति, नहीं तो अगले जन्ममें भगवान की प्राप्ति होगी | यदि हमने वाणीमें कूड़ा-करकट भर लिया तो नरकोंमें ही गिरना पड़ेगा | ऐसी तामसी योनियाँ मिलेंगी जहां परमात्माकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती | हमको इतनी तेजीसे चेष्ठा करनी चाहिए की इसी जन्ममें ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाए | हमारे पास जितनी भी शक्तियां है उन सबको परमात्माकी प्राप्ति में लगा देना चाहिए | नहीं तो घोर पश्चाताप करना पड़ेगा |
कालहि कर्मही इश्वरही मिथ्या दोस लगाईं |
इन सब बातों को सोचकर हमें परमात्मा प्राप्ति को नहीं छोडना चाहिए | जब हित की बात है, हित की बात ही नहीं परम हित की बात है, तो इसे नहीं छोडना चाहिए | इससे बढ़कर और कोई हित नहीं | आप भटकते फिरते हैं क्योंकि आपको पूर्ण आनन्द की प्राप्ति नहीं हुयी तभी भटकते हैं | जब मनुष्य उस परमानंद से तृप्त हो जाता है तो उसे कोई भी चीज़ अच्छी नहीं लगती | जब उस आनन्द से भर जाता है, तब उसे किसी भी चीज़ की आवश्यकता नहीं रहती | उस आनन्द की प्राप्ति के बाद चाहे शरीर को काट डालो, जला दो पर आनन्द की स्थिति वैसी ही बनी रहेगी | यह परीक्षा है |
जिसको पाकर उससे बढ़कर और कुछ नहीं समझता | जिस परमात्मा के स्वरूपमें स्थित होकर भारी-से-भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता है | (गीताजी ६/२२) में यह बात स्पष्ट बताई है प्रभुने| इसलिए हमारे पास शरीर मौजूद है तो इस चीज़ को अवश्य प्राप्त करना चाहिए | यह बहुत शीघ्र और सुगमता से हो सकता है | हमने इसकी अवहेलना कर रखी है इसलिए वंचित रह जाते हैं| यह चीज़ करनेमें बड़ी ही सुगम है | वह जल्दी ही धर्मात्मा बन जाता है | चाहे घोर पापी भी क्यों ना हो |
“हे अर्जुन ! उन मेरेमें चित्तको लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागरसे उद्धार करनेवाला होता हूँ |” (गीताजी १२/७)
जिन्होंने मेरेमें चित्त लगा दिया है उन्हें मैं शीघ्र ही संसार सागरसे पार कर देता हूँ | देरी का काम नहीं है | गीताजी (५/६) में भी भगवानने कहा है कि भागवत स्वरुप को मनन करनेवाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है |
“हे अर्जुन ! जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ, श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है, और उस ज्ञान को पाकर तत्क्षण भगवत प्राप्तिरूप परमशान्ति को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है |” (गीताजी ४/३९)
भगवानने जगह-जगह जल्दी ही प्राप्ति बताई है | देरी का काम नहीं है | आप कहते हैं की हमें तो साधन करते हुए बहुत-से वर्ष हो गए, हमें तो अभी तक किसी भी चीज़ की प्राप्ति नहीं हुयी है | तो आप झूठ भले ही कहो परन्तु वास्तवमें आपने साधन किया ही नहीं है | साधन तो दामी होना चाहिए जब आप दामी चीज़ चाहते हैं | आप कठिन मानते हैं और भगवान कहते हैं सुसुखं | भगवान कहते हैं की फल भी प्रत्यक्ष है | आज काम करो और दुसरे जन्ममें उसका फल मिलेगा यह बात नहीं है |
“यह ज्ञान सब विद्याओंका का राजा तथा सब गोपनीयोंका भी राजा है एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला और धर्मयुक्त है, साधन करनेको बड़ा सुगम और अविनाशी है |” (गीताजी ९/२)
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.....
[पुस्तक 'भगवन्नाम महिमा एवं परम सेवा का महत्त्व' श्री जयदयाल जी गोयन्दका ] शेष अगले ब्लॉग में .......