प्रवचन नंबर १.
परमात्माने हमको जो कुछ बल बुद्धि दी है, उसके अनुसार जी तोड़ परिश्रम करके परमात्माकी प्राप्ति कर लेनी चाहिए | इतना कर्त्तव्य मनुष्य करे तो सारा भार भगवानपर है | इतना नहीं कर सके तो भगवानको हरवक्त याद करें | इसके बाद तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं | नियम प्रेम का पालन नहीं कर सको तो कोई हर्ज नहीं | भगवानसे मदद मांगो तो मदद मिलती है |
वास्तवमें परमात्मा मन वाणी का विषय नहीं है | परमात्मा बहुत सूक्ष्म है | वाणी के द्वारा परमात्मा का जो स्वरुप बतलाया जाता है, मनसे मनन किया जाता है, उससे परमात्मा का स्वरुप विलक्षण है | परमात्मा वह है जिसकी शक्तिको पाकर मन मनन करता है | मनके सहित वाणी लौट आती है, क्योंकि वह परमात्माका थाह नहीं लगा पाती | मनसे परमात्मा के स्वरुप का मनन करते हैं, वह मनका माना हुआ स्वरुप है |
‘मनके हारे हार है मनके जीते जीत ’
मनमें कभी निराश नहीं होना चाहिए | जो कुछ मनके समझमें आये, सुनने, पढ़ने से बात समझमें आयी है, उसी के अनुसार परमात्मा के नामपर ध्यान करता है | वह असली ध्यान तो नहीं कर सकता | उसने परमात्मा का स्वरुप तो देखा नही; जैसा सुना, समझा, उसीको लक्ष्य में रखकर ध्यान करता है, मनमें हारता नहीं और न निराश ही होता है | जैसा समझमें आया उसीके अनुसार ध्यान करता है | साधन करनेके फल स्वरुप परमात्मा की प्राप्ति होती है | भगवान ने यह बात कही कि तू जैसा मेरा स्वरुप मानता है, वैसे ध्यान करे तो असली रूप की प्राप्ति हो जाती है | शाखाचन्द्र न्यायसे चंद्रमा के दर्शन हो जाते हैं | वैसे ही परमात्मा को प्राप्त करनेका संकेत है | यद्यपि मनके समझमें आये हुए परमात्माके स्वरूपसे वह असली स्वरुप विलक्षण है, उसको लक्ष्य में रखकर साधन करनेके फलस्वरुप परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है | ध्यान करना भी कर्म है, किन्तु ध्यान के फलस्वरुप परमात्मा की प्राप्ति होती है, इसलिए वह अकर्म है | परमात्मा का भजन-ध्यान करना मार्ग तय करना है, जबतक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो तबतक चलता ही रहे | शरीरसे जो विदेह हो गया वह गुणातीत है | देहाभिमान छूट गया वह गुणातीत है, वही महात्मा है | मुक्तिका स्वरुप क्या है ? मुक्तिका स्वरुप है बंधनों से छूट जाना, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदिसे छूट जाना, आनंदमय सच्चिदानंदघन बन जाना | जो भगवान का स्वरुप है, वही मुक्तिका और मुक्त का स्वरुप है | परमात्मा क्लेश, कर्म, विपाक से रहित हैं और मुक्त स्वरुप हैं | उनको जो प्राप्त हो जाता है वह मुक्त पुरुष है |
भूत, भविष्य और वर्तमानकाल – ये बुद्धि के कार्य हैं | बुद्धि से परे दूसरा काल है प्रकृति | इस प्रकृति से भी परे काल है ब्रह्म | ब्रह्म काल का भी काल है | वह असली काल है | परमात्माके नाम नित्य, शाश्वत, अनादी, सनातन आदि आते हैं, अतएव वे काल के भी काल हैं | परमात्मा अलौकिक काल हैं, वह सब कालोंको खा जाते हैं |
प्रश्न – गंगा में जानबूझकर मरे उसकी क्या गति होती है ?
उत्तर – इसका मुझे पता नहीं है | मुक्ति की इच्छा के लिए अनशन व्रत करके शरीर छोड़े तो आपत्ति नहीं, यह तपस्या है | फिर उसको तकलीफ होगी तो बीचमें छोड़ देगा | महात्मा के वचनों से कोई शरीर त्याग करे यह विधि नहीं है | मैं यह रास्ता नहीं बतलाता कि आत्महत्या करें | मुझे यह विश्वास नहीं की ऐसा करनेसे भगवान मिल जायेंगे | यदि यह विश्वास होता तो रास्ता बता देता | भगवान से जिद नहीं करनी चाहिए | नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[पुस्तक 'साधनकी आवश्यकता' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कोड . ११५०, गीताप्रेस, गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में .......
[पुस्तक 'साधनकी आवश्यकता' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कोड . ११५०, गीताप्रेस, गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में .......