※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 8 जुलाई 2012

मान्यता की महत्ता - २

प्रवचन नंबर २.२


सत्संग की बात है, सुनकर, सुनाकर इनसे लाभ उठाना चाहिए, किसी भी द्वार से पान करें | कर्ण, नेत्र, जिव्हा, त्वचा, चाहे जिस द्वार से लाभ उठा सकते हैं | विशेष बुद्धिमानी उसीकी है, जो अच्छीसे तो लाभ उठाता ही है, किन्तु खराब से भी लाभ उठा ले | कोई आदमी हमें तंग करता है, अपने पास कोई सेवा कराने या चीज़ मांगने आया है तो यदि हम उसे अधिकारी नहीं समझें तो ना दें | अधिकारी समझ लिया तो दे दी | यही समझो, कोई भी आये वह हमारा हित करने आया है | अपने तो अच्छे से अच्छा भाव रखें | यदि वह अच्छा भाव कायम नहीं रहे तो कमी है, हमारे में बुराई है, वह नुक्सान करती है | महात्मा का सबमें भगवद्भाव है, उनको कोई नुक्सान नहीं पहुँचा सकता |

सो अनन्य जाकें असी मति न टरइ हनुमंत |
मैं सेवक सचराचर रूपरासी भगवंत ||

ऐसी जो मान्यता या निश्चय है, उससे जो नहीं टलता वह अनन्य भक्त है | हमें येही भाव रखना चाहिए | इसमें एक रहस्य है, सब भगवान के स्वरुप हैं, वे हमारे पास आये तो मानो हमारा कल्याण करनेके लिए आये हैं | कोई आता है तो प्रयोजन को लेकर आता है, वह प्रयोजन सिद्ध हो गया तो सेवा हो गयी | उसको भगवान समझकर सेवा की तो भगवानकी सेवा हुई | अपात्र समझकर उसको नहीं दिया, इनकार कर दिया तो हमारा और उसका दोनों का लाभ हुआ | कैसे ? भगवान परीक्षा के लिए आते हैं | भगवान यही चेताते हैं कि यह देनेका पात्र नहीं | नहीं दिया तो उसका और अपना हित ही किया | कैसे ? भगवान श्रीकृष्ण यशोदा से खाने के लिए मिट्टी मांगते हैं, यशोदा नहीं देती, क्योंकि लड़का मिट्टी खानेका पात्र नहीं | चोरीसे मिट्टी खा जाते तो मना करती है, फिर अपने हाथ से कैसे दे ? बलदेवजी ने शिकायत की तो कृष्ण के कान पकडे | यशोदा जो भगवानकी माँ हैं, वह निपट मूर्ख नहीं हैं | कृष्ण कुपथ्य की कोई चीज़ मांगे तो नहीं देती | यह दोष की बात नहीं है | पात्र को देनेमें कोई हर्ज नहीं | भगवान माखन-मिश्री मांगते तो यशोदा दे देती, क्योंकि पात्र समझती हैं | उसके लाभ में अपना लाभ है और उसकी हानि में अपनी हानि है | पथ्य तो देवे, किन्तु कुपथ्य नहीं देवे, चाहे बाप हो चाहे वैरी | वैरी को मारना है तो वीरता से मारो | विष देकर मारना सज्जनता नहीं है | अश्वत्थामा ने एक अक्षौहिणी सेनाको सोती हुयी मार डाला, यह कलंक का काम हुआ | हिंदू मुसलमान पर या मुसलमान हिंदू पर अत्याचार करे तो बुरा ही है | अत्याचार से जीत हुयी तो वह विजय अविजय है, कोई काम की चीज़ नहीं | जीत उसकी है, जिसने धर्म का त्याग नहीं करके प्राण का त्याग कर दिया | कृत्य वही अच्छा समझा जाता है जो शूरवीरता पूर्वक हो | भाव ही सबकुछ है | भावको लेकर धर्मशास्त्र में बतलाया गया है.... भगवान लकड़ी में या पत्थर में अथवा मिट्टी में नहीं हैं | भगवान तो भाव में है, इसलिए भाव ही कारण हैं|

अपने लिए अपना अच्छा भाव उन्नति करनेवाला है, इसलिए हमें अच्छा भाव ही रखना चाहिए | अंत:करण के दोष के कारण बुरा भाव आ जाता है तो काम में नहीं लाना चाहिए | अंत:करण में भला भाव लानेसे आता है | जिसका अंत:करण शुद्ध होता है, उसके स्वाभाविक ही अच्छा भाव आता है | अच्छे में बुरा भाव आ जाए तो भगवान चेताते हैं – हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतुसे प्राप्त हुआ ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देनेवाला है और न कीर्ति को करनेवाला ही है | इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती| हे परंतप ! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खडा हो जा |” (गीताजी २/२-३)

ऐसे कहा जाए तो आदमी का भाव एकदम बदल जाता है | सावधानी हो जाती है | दूसरा चेताये या नहीं, किन्तु स्वयं अपनेको चेताये | अपनेमें बुरा भाव है, वह पतन करनेवाला है और अच्छा भाव है, वह उन्नति करनेवाला है | अपनी नियत से ही सब कुछ है | आज आपके शुद्ध भाव हो जाए तो, सब नारायण का स्वरुप हो जायं | वन, पहाड़ भी देवरूप हो जाते हैं, क्योंकि पत्थरकी, लकड़ीकी ही देव मूर्ति बनती है | भगवान ही प्रत्यक्ष रूपमें दिखने लग जाते हैं | जब ब्रह्मा जी बछड़े, गाय, ग्वालबाल चुराकर ले गये तो भगवानने ही उन सबका रूप स्वत:ही धारण कर लिया | बलदेवजी ने ध्यान लगाकर देखा तो पता चला की ये सब तो कृष्ण ही बना हुआ है | भगवान से भी यह रहस्य पूछा तो जवाब दिया कि मैं ही सब बना हुआ हूँ | अतएव जैसे बलदेवजी की ग्वालबालों में, बछडोंमें कृष्ण बुद्धि हुयी, वैसे ही हमारा सब विश्व में भगवान का भाव हो जाय | भाव ही सब कुछ है |

      सो अनन्य जाकें असी मति न टरइ हनुमंत |
मैं सेवक सचराचर रूपरासी भगवंत ||
एक नीच आदमी भी भाव से लाभ देनेवाला होता है, फिर महात्मा तो सब विघ्नों का नाश करनेवाला अमृतरूप है | भगवान सबकी समय-समयपर परीक्षा लिया करते हैं | अर्जुन, गरुड़, ब्रह्माजी, पार्वतीजी, शिवजी भी मोहित हो जाते हैं फिर दूसरों की तो बात ही क्या है |
सिव विरंची कहूँ मोहई को है बपुरा आन |

भगवानने लीला में रुक्मणीजी को कहा कि शिशुपाल मुझसे सब तरहसे श्रेष्ठ है और मैं सब तरहसे निकृष्ट हूँ, फिर भी तुमने उससे विवाह नहीं करके मुझसे ही क्यों किया | यह बात सुनते ही रुक्मणीजी बेहोश हो गयीं | भगवान समझ गये और रुक्मणीजी को झट अपने ह्रदय से लगा लिया और प्रेमपूर्वक कहा की मैं तो परीक्षा ले रहा था |

भगवान छल करते हैं उसमें भी बड़ा रहस्य है | जिससे वे छल करते हैं उसका वे हित ही करते हैं और जो लीला करते हैं, वह ठीक करते हैं | महापूरुष जो रहस्य की बात कहते हैं, उसका लोकमें दूसरा अर्थ और वास्तविक अर्थ दूसरा है, उसीका नाम रहस्य है | शब्दों का अर्थ दोनों प्रकार का होता है | एकबार नारद जी भगवान श्रीराम के यहाँ गये तो महाराज जो कहते हैं, वह दूसरे ही भाव से कहते हैं और नारद जी दूसरा ही अर्थ लगाते हैं |

भगवान – आप त्यागी हैं और मैं गृहस्थ हूँ |
नारदजी – महाराज, आप जैसे गृहस्थ हैं, वह मैं जानता हूँ | आप तो तीनों लोकों को उत्पन्न, पालन और संहार करनेवाले हैं |

भगवान और नारदजी दोनों की दृष्टि ठीक है | अध्यात्म रामायण का प्रकरण है, वेदान्त और भक्ति से मिला हुआ विषय है | नारदजी का गृहस्थ मानना ठीक है और भगवान का मानना भी ठीक है | वास्तविक बात है वह दूसरी है, और ऊपरी बात है, वह भी ठीक है |

रासलीला के प्रसंग में भगवानने गोपियों से कहा की रात्री के समय तुमको पुरुषके पास नहीं जाना चाहिए| गोपियों ने उत्तर दिया – महाराज ! आप पर पुरुष नहीं हैं | आप तो जगतपति है, पतियों के पति हैं | आप केवल गोपियों के ही पति नहीं, सारे ब्रह्माण्ड के पति हैं | भगवान का यह कहना भी ठीक है कि तुम रात्री के समय परपुरुष के पास मत आओ | स्वयं ही बुलाते हैं और स्वयं ही जानेको कहते हैं | एक हलके से हल्का आदमी भी हमारा दोष दिखाए तो लाभ उठाना चाहिए | जब भगवान और महात्मा दोष दिखाएँ तो निकालने में क्या हर्ज है | अपनेमें दोष शूल है, उनको आदमी निकालना चाहे तो बहुत जल्दी निकल जाते हैं | इश्वर महापुरुष इस विषय के जानकार हैं, प्रेमी हैं, उनके हाथ से नुक्सान नहीं होता | कांटे के निकालने में दर्द हो तो सह लेते हैं, उसी प्रकार इस समय प्रसन्न होना चाहिए | उनको काँटा निकालकर कष्ट दूर करनेकी विद्या भी याद है | अपनी तो यह दशा है कि कांटे को पालते हैं | निकालने नहीं देते | क्योंकि दर्द होगा | अच्छे पुरुषों की भाषा अटपटी होती है, समझमें नहीं आती | उनकी कृपा से ही समझ में आ सकती है | समझमें नहीं आये तो कृपा मानें | गंगा के प्रवाह की भाँती उनकी कृपा बह रही है | उनसे जितना लाभ उठाना चाहो उठा लो | भगवान, महात्मा की कृपा है | अपने जितनी काममें आ सके, उतना लाभ उठा लें | गंगा में जल बहुत हैं, किन्तु अपनी प्यास बुझाने के लिए एक लोटा जल ही पर्याप्त है |   

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण......      
[पुस्तक 'साधनकी आवश्यकता' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कोड . ११५०, गीताप्रेस, गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में  ....