※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 8 जुलाई 2012

भाव ऊँचा बनावे,भाव अपना है,अपने अधिकार की बात है


प्रवचन-२४-४-१९४५, प्रात: काल, वट वृक्ष स्वर्गाश्रम !



हमको अपना सुधार  करना चाहिये ! हमारे द्वारा अब ऐसा कोई काम नहीं होना चाहिए, जो हमें खतरे में डालने वाला हो ! भाव ऊँचा बनाये ! भाव अपना है, अपने अधिकार की बात है ! फिर कमी क्यों रहने दें !
 अनिच्छा-परिच्छा से जो कुछ आकार प्राप्त होता है,वह हमारा प्रारब्ध है ! कोई भी काम करें उसमें ऊँचे  से ऊँचा  भाव रखें ! संसार में जो कुछ है,भाव ही है ! भाव श्रेष्ठ बनायें !
    एक भाई यज्ञ तपादी करता है, उसका भाव यह है कि हमारा शत्रु मारा जाय, बीमार पड़ जाय तो यह तामसी है अधोगच्छंती तामसा: ! देखने में उसके कर्म अच्छे हैं किन्तु उसका फल नरक है,क्योंकि उसका उद्देश्य खराब है,
भाव खराब है !
  दूसरा एक भाई वही यज्ञ तपादी भगवान में प्रेम होने के लिए करता है या फल कि इच्छा नहीं रखता, निष्काम भाव से करता है, वह क्रिया कल्याण करने वाली है इसलिये उत्तम भाव सें ही कर्म करना चाहिये !
हम किसी कि सेवा करते हैं तो उस समय यह भाव रखना चाहीये की हम कुछ नहीं करते, अपितु यही हमारा बहुत बड़ा काम करते हैं कि हम सें  सेवा करा रहे हैं, उनकी और भगवान कि दया है कि हमको सेवा का मौका दिया है !
यह भाव कल्याण करने वाला है, ऊँचे दर्जे का भाव है ! यदि यह भाव करें कि हम सेवा करते हैं तो लाभ तो है किन्तु इतना नहीं , वाह वाही मिल जायेगी ! नाम बड़ाई होगी या स्वर्ग मिलेगा,किन्तु उससे लाभ क्या है ?
मनुष्य जीवन विषय भोग के लिए नहीं है ! उद्देश्य यह न हो कि मैं जो दान,ताप यज्ञ, उपकार करूँगा उससें स्वर्ग मिले या कीर्ति हो ! स्वर्ग और कीर्ति कोई चीज नहीं है, असली वस्तु तो ऊँचे भाव से मिलाती है ! स्वर्ग मिला तो क्या लाभ हुवा ?

   ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति !
   एवं   त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना        गतागतं    कामकामा    लभन्ते  !!

                                                                        (गीता ९ / २१ )

वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोग कर पुन्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को ही प्राप्त होते हैं ! इस प्रकार स्वर्ग के साधन रूप तीनों वेदों में कहे हुए  सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों कि कामना  वाले पुरुष बार बार आवागमन को
प्राप्त होते हैं, अर्थात पुन्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुन्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आते हैं !
  हम लोग न जानें कितनी बार स्वर्ग और नरक भोग चुके हैं, फिर यह मनुष्य जीवन पाकर फिर उसी के लिए चेष्टा करना मूर्खता है ! यह मौका हाथ से न जाने दें ! यह आखिरी मौका है अन्यथा ऐसे ही जन्मते मरना है !
           अप्राप्य  मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि !     (गीता ९ / ३ )
    पूर्व में कितनी बार जन्मे मरे और भविष्य में कितनी बार जन्मेंगे और मरेंगे, इसको कोई नहीं बता सकता !
   यह मनुष्य शरीर संसारमें घुमनेके लिए नहीं मिला है ! संसार के भोगों के लिये या स्वर्ग भोगनेके लिये नहीं मिला है, यह तो परम कल्याण करनेके लिये मिला है !
 
   हम जिनकी सेवा करते हैं, उपकार करते हैं, वास्तव में वही हमारा उपकार करते हैं, वही हमारा कल्याण करते हैं ! यदि हमारे द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाये तो समझें बड़ा भरी पाप हो गया, जिसका अनिष्ट हो गया है,
उससें क्षमा प्रार्थना करनी चाहीये ! वह यदि क्षमा कर दे तो फिर यमराज की सामर्थय नहीं है कि दंड दे सके !
  यह भाव रखें कि सब भगवान के ही जन है ! जितने जीव हैं भगवान के ही तो हैं ! तुलसीदासजी ने कहा है-----
    समदरसी मोहि कह सब कोऊ ! सेवक प्रिय अनन्य गती सोऊ ! !
        अनन्यगतिवाला भक्त भगवान् को अधिक प्रिय है ! अनन्यगति का लक्षण भगवान् राम इस प्रकार बतातें हैं-
        सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ! मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत ! !
    वह मेरा अनन्य सेवक है  जिसकी मति इस भाव से कभी नहीं टलती कि यह संसार भगवान् का स्वरुप है और मैं सबका सेवक हूँ ! यह बहुत ऊँचा भाव है ! गीता में भगवान् कहते हैं-
 बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपध्यते ! वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ! !


बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष,सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है ! हम लोगों को सबको वासुदेव समझ कर, नारायण समझ कर सेवा करनी चाहीये !
यदि कुछ अपराध बन जाय तो सेवा-प्रार्थना करनी चाहीये और बदले में सेवा अधिक करनी चाहीये, यदि हमारा अनिष्ट हो तो यह भाव रखें कि यह हमारे प्रारब्ध का फल है ! हमने जो अपराध किया है उसका फल भगवान् इसको
निमित्त बनाकर भुगता रहे हैं ! प्रभु सें उसके लिये यह प्रार्थना करनी चाहीये कि प्रभो आप तो  स्वयं यह काम कर सकते हैं फिर इस बेचारे को क्यों निमित्त बना रहे हैं ! अपने से जो किसी कि सेवा हो रही है,उसमें यही भाव रखें
कि अपने द्वारा जो कुछ हो रहा है उसमें सेवा करवानेवाले के द्वारा हमारा उपकार हो रहा है ! किसी के द्वारा हमारा अनिष्ट होता है तो अपने ही पापों का फल समझे ! भगवान उसको निमित्त बनाकर फल भुगता रहे हैं, उसके
प्रति द्वेषभाव न रखे ! उसका इसमें कोई दोष नहीं है ! जो कुछ है भाव ही है ! इसीको ऊँचा बनायें ! यह संसार दीख रहा है,यह हमारे मन का भाव है ! भीतर का भाव ही बहरा दिखता है, मन को भावमय बनाये ! मनको कुछ काम
चाहीये,यही काम दें ! यहाँ आये हैं तो गँगामें स्नान करें ! गँगा की महान कृपा है तभी तो हमको पवित्र करने आई हैं ! गँगा भगवान शिव की जटा का जल है और भगवान विष्णुके चरणों का जल है, यह कल्याण करने के लिये ही संसार
में आई है ! स्नान करते समय इस प्रकार का ऊँचा भाव रखें ! इसी प्रकार भगवान सूर्य को अर्ध्य देते समय यह भाव रखे कि भगवान सूर्य संसार का कल्याण कर रहे हैं ! प्रकश द्वारा कल्याण जो होता है, वह तो होता ही है !
यह प्रत्यक्ष  देवता हैं ! इनकी रश्मियों के द्वारा मनुष्य कल्याण को प्राप्त होता है ! यह उत्तम मार्ग से परमात्मा के परमधाम पहुंचाते हैं ! इनकी उपासना भावमय होकर करे तो क्या वह इतना भी नहीं करेंगे कि इसने जन्मभर मेरी
आराधना कि है अत: उसे अच्छे मार्गसे भगवानके धाम में पहुंचा दें ! इसलिये इनकी आराधना करते समय बहुत ही ऊँचा भाव रखना चाहीये !

           यही बात नामजप में है ! नामजप  का बड़ा भारी प्रभाव है ! नामजप से सारे  पापों का नाश  होकर कल्याण हो जाता है ! नामजप के सामान और कोई सुगम साधन नहीं है ! निष्काम भावसे करने पर नामजप और मूल्यवान हो जाता है !
नामजप के साथ-साथ भगवान के स्वरुपका ध्यान करेने से अधिक लाभ हो सकता है ! नामजप में भाव ऊँचा बनायें,बड़ा लाभ हो सकता है !
    भगवानकी हर एक क्रियामें प्रसन्न रहे,मुग्ध हो-होकर भगवान कि दया समझे ,फिर कल्याणकी प्राप्तिमें देर नहीं है !


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]