※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 9 जुलाई 2012

मान्यता की महत्ता - ३

प्रवचन  नंबर २.३

गीताके उपदेश, भागवत, रामायाण, सत्संग की बातों में, उपदेश में बहुत लाभ पडा है, जितना मानते, समझते हैं, उससे भी बहुत ज्यादा है | सत्संग की बातें हैं, उससे एक भाई एक पैसा, कोई दो पैसा और कोई १६ आना लाभ उठाता है | १६ आना लाभ भगवानकी प्राप्ति है | गीता, रामायण और भागवत के वचनों में शक्ति है, जिससे भगवानकी प्राप्ति हो जाती है |

शास्त्रोंमें सत्संग की जो महिमा बतायी गयी है, वह रूचि बढाने के लिए झूठी महिमा नहीं है, सच्ची बात है | उसकी शक्ति अपरिमित है किन्तु अपनी पात्रता की कमी के कारण हम वंचित हैं | दस आदमियों को दस तरह का लाभ मिलता है | सबको एक-सा लाभ नहीं मिलता | इसी प्रकार भगवान के नाम, ध्यान के विषय की बात है | नामकी ऐसी महिमा है कि एक नाम के उच्चारण से सब पापों का नाश हो जाता है | हमको इतना लाभ नहीं प्रतीत हो रहा है, किन्तु यह बात ठीक है | सत्संग स्वर्ग और मुक्ति से भी बढ़कर है, बात ठीक है, किन्तु हमको सतांश भी लाभ नहीं हो रहा है, यह बात भी ठीक है |

यह साधारण सत्संग है | मुझे जो ठीक प्रतीत होता है, वैसा कहता हूँ | जिसको साधारण प्रतीत हो उसके लिए साधारण है, पर ये असाधारण भी हो सकता है | एक पाषाण की मूर्ति है, उसको एक पाषाण की मूर्ति कहता है और दूसरा भगवानकी मूर्ति कहता है | दोनों ठीक ही कहते हैं | तर्कसे अधिकांश में वह पाषाण की मूर्ति है, समझनेवाला भूल नहीं करता और श्रद्धा से  यह भगवानकी मूर्ति है | सबकुछ अपने भाव की बात है |

बुद्धिमान वही है जो साधारण वस्तुसे भी असाधारण लाभ उठा ले, अन्यथा मूर्खता है | ज्यादा संख्यामें तो लोग परमार्थ के विषयमें मुर्ख हैं | भगवान कहते हैं – 

हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्वसे अर्थात यथार्थ रूपसे जानता है |” (गीताजी ७/३)

यह बात ठीक है | इस न्याय से उच्चकोटि का पुरुष तो कोई एक ही होता है, साधक भी कम ही हैं | मामूली आदमियों की संख्या तो हजारों हो सकती है | इनसे भी लाभ उठा सकते हैं, उनसे अधिक लाभ साधक से और साधक से भी अधिक महात्मा से लाभ उठा सकते हैं | बहुत ज्यादा लाभ उठा सकें उसमें तो कहना ही क्या है | इश्वर अवतार लें, उस समय अविवेकी ही लाभ से वंचित रहता है|

श्रीरामचंद्रजी महाराज सीताजी को वन के क्लेश की शिक्षा देते हैं कि वनमें हवा, धूप, वर्षा, शीत बहुत है| खाने के लिए भी कंद-मूल फल हैं जो सदा मिलेंगे ऐसी संभावना नहीं | वृक्ष के नीचे रहना होगा, सब प्रकारसे वनमें क्लेश ही है | अयोध्या में सब प्रकारसे सुविधा है, अतएव हे सीते ! तू यहीं रह | सीताजी पतिकी बातको काममें नहीं लाती हैं | उस उपदेशका क्या असर पडा ? सीताजी ने कहा – आपने वनके सब दुखोंकी बात कही, इन सबको इकट्ठा कर तुलना करें तो इन सबसे अधिक दुःख आपके वियोग में है| दूसरी बात हैं वनमें मैं स्वयं आपकी सेवा करुँगी तो क्या वे क्लेश मुझे दुःख दे सकेंगे |

भगवान वनके दुःख क्यों बताते हैं, क्या रहस्य है ? इसमें कई बातें हैं –
१.       लोगों को मर्यादा की शिक्षा दे रहे हैं |
२.      सीताको वनकी सब बातें कह दी जायं तो कठिनाईयाँ यहीं हल हो जायेंगी |
३.      हरेक आदमी को चाहिए की अपनी सुविधा के लिए कोई साथमें आये, यह उच्चकोटि की बात नहीं| कोई सेवा के लिए आग्रह करे तो भले ही स्वीकार कर लें, अपनी तरफसे तो मना ही करें|

वसिष्ठजी भरत को राज्य के लिए कह रहे हैं, गुरूजी, माताएं सब इस बात का समर्थन भी कर रहे हैं, पर भरतजी ने कहा कि आपने मेरे हित के लिए ही कहा, पर मुझे उसमें अपना हित नहीं दीखता, मैं क्या करूँ ? भरत उनकी बातको काममें नहीं लाते | यही असली बात है | भरत के हृदयमें दूसरी ही बात पैदा हुयी | वसिष्ठजी, माताओं का जो आग्रह था, उसको भरतने काट दिया , बिलकुल विपरीत बात कही | भरतके लिए ‘ना’ वाली बात विशेष उपयोगी हुयी | उनकी बात मानते तो वह बात मूल्यवान नहीं होती | इसी प्रकार अच्छे पुरुष कोई बात कहें तो उस जगह भरतजी वाली बुद्धि लगानी चाहिए | यह बात नहीं थी कि भरतजी उनकी कोई बात नहीं मानते थे | हमें कौन-सी बात काममें लानेकी है, यह बात अपनी बुद्धिसे विचारने की है | अच्छा पुरुष कहें, किन्तु अपने विचारमें आये की यह अपने लाभ की बात नहीं है, तो काममें नहीं लानी चाहिए | यह और उच्चकोटि की चीज़ है |

एक बात है की शरीर को तो आराम हो, किन्तु अध्यात्म में हानि हो तो पारमार्थिक दृष्टि से जो लाभ की बात हो उसे काममें लाना चाहिए | अच्छे पुरुषों से भी जो अपने लाभ की बात हो, उसमें हाँ कर लेनी चाहिए |

वसिष्ठजी की बात मानकर भरतजी यदि राज्य करते तो नुक्सान नहीं था, पर विशेष लाभ की बात यह है, जिसमें अपने सांसारिक स्वार्थ को छोडकर पारमार्थिक सिद्धि हो | सीताजी अपने पति की बात मानकर घर रहती तो दोष नहीं था | पर यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए की कहीं अपना स्वार्थ नहीं आ जाए | परमार्थ के लिए अपने स्वार्थ का बलिदान करना चाहिए | उसीसे परमात्मा की प्राप्ति जल्दी हो जाती है, अन्यथा विलम्ब होता है | अतएव हमें अपनी बुद्धि से सोचना चाहिए कि, हमारा हित किसमें है | अपनी बुद्धि काम नहीं करें तो अच्छे पुरुषों से पूछ लें | जैसे आटा छानने की अपनी छलनी खराब हो जाए तो पडोसी की छलनी मांगकर काममें ले सकते हैं |

प्रश्न – यदि माता-पिताकी आज्ञा उचित हो तो ठीक, किन्तु अनुचित हो तो कहाँ तक पालन करें ?
उत्तर यदि आपको अपनी आत्मा का कल्याण करना हो तो पालन करो | पाँचों पांडव माँ के पास गये, कहा – हम पाँचो एक बढियां चीज़ लाये हैं, माता ने कहा पाँचो बाट लो | पांडवों ने कहा – हम तो स्त्री लाये हैं | तब कुंती बड़े पशोपेशमें पड़ गयी | एक स्त्री से पांच लोग विवाह करें, यह बात शास्त्रविरुद्ध, लोकविरुद्ध, नीतिविरुद्ध  है | पर पाँचों ने मिलकर एक के साथ विवाह किया, जिसको कोई बुरा नहीं कह सकता | आजकल इस प्रकार की आज्ञा पालन करे तो लोग उसे मूर्ख कहते हैं | बात कठिन हैं, मैं तो यही कहता हूँ की पापकी बात हो तो मत मानो | यह क्यों कहता हूँ ? जब वे पुण्य की बात नहीं मानते हैं तो पापकी बातको मानने के लिए क्यों कहूँ | यदि पापकी बात पूछने के लिए आता है तो मैं यही कहूँगा कि  पापकी बात नहीं माननी चाहिए |

इश्वर, महात्मा की आज्ञा मानने में दोष की बात नहीं है | बिना विचारे पालन की जाय तो अहित नहीं है| स्वार्थ का त्याग करके परमार्थ की बुद्धि से छान ले तो आपत्ति नहीं | स्वार्थ का त्याग, सब प्रकारसे उच्चकोटि की चीज़ है | सत् का पालन, माता-पिता के आज्ञापालनमें स्वार्थ का त्याग हो, परमार्थ की सिद्धि हो तो वह ऊंचे दर्जेकी चीज़ है | जो माता-पिता पर निर्भर है, निर्भरता की प्रधानता देकर उनकी आज्ञा के अनुसार चले तो निर्भरता के नाते ऊंचा दर्जा है | ऐसे भावसे स्वामी का हित करना सेवा है, अपने लिए तकलीफ है, ऐसे स्थलमें परिणाम में हित होने के कारण यह सब प्रकारसे हितकर है | स्वामीके हितके लिए अपने हितकी तिलांजलि दे दे, वह सबसे बढियां है | यह बात चाहे स्वार्थ की हो चाहे परमार्थ के विषय की हो | ययाति को पुरुने अपना यौवन दे दिया, भीष्म ने पिताके लिए कंचन, कामिनी का त्याग कर दिया | माता-पिता, गुरुकी परमार्थ सिद्धिके लिए अपना परमार्थ भी त्याग कर देना चाहिए | हरेक आदमी को हर-वक्त ख्याल रखना चाहिए की अपने स्वार्थ के लिए परमार्थका कहीं त्याग तो नहीं कर रहा हूँ |
        
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण......      
[पुस्तक 'साधनकी आवश्यकता' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, कोड . ११५०, गीताप्रेस, गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में  .....