प्रवचन दिनांक २७ / ४ / १९४५ प्रात: काल वात वृक्ष स्वर्गाश्रम
कल समता के विषय में कहा था,समता कसौटी है ! जीतनी अधिक समता है, उतनी ही परमात्मा सें निकटता है ! समता परमात्मा का स्वरुप है ! मेरे मन में एक बहुत मुल्वान बात आयी है ! वह यदि समझ में आ जाय तो बड़ा भारी लाभ है !
यह समय बड़ा मूल्यवान है ! लाख रुपये में भी एक दिन का समय नहीं मिल सकता, न रुदन करने पर,न सिर पटक पर मरने पर ही मिल सकता है ! मनुष्य का सबसे बड़ा मूल्यवान है ! एक क्षण ना घाट सकता है न बढ़ सकता है,इसलिये इसकी सावधानी सें रक्षा करनी चाहीये !
पाया परम पद हाथ से जात गई सो गई अब राख रही सो !
यह मनुष्य शरीर सागर किनारे की नौका है,किनारे आकर नौका डूब जाये तो बड़ी लज्जा की बात है ! इसलिये समय का सदुपयोग कर साधन बढाये ! एक एक मिनट भी लाख रुपये में नहीं मिलाता है ! व्यर्थ समय न बितायें !न व्यर्थ बोलें, न व्यर्थ क्रिया करें ! यदि समय व्यर्थ बित जाये तो पुत्र शोक जैसा शोक मनावे ! जो समय बीत गया, वह किसी प्रकार लौटकर आने वाला नहीं है ! भगवद्विषय को छोड़कर किसी भी काम में समय गया, वह व्यर्थ गया ! यदि व्यर्थ गया तो रोओ,पहले रो लोगे तो अंत में रोना नहीं पड़ेगा !
रुपयों से भी मनुष्य का समय मूल्यवान है ! रुपया किसी काम नहीं आएगा ! संसार में जितने पदार्थ हैं कोई काम नहीं आयेंगे ! शरीर से भी कोई लाभ नहीं होगा यह भी यही, रह जायेगा,इसलिये जल्दी सें जल्दी मनुष्य शरीर से एवम रुपयों से ऊँचे से ऊँचा काम बना लेना चाहीये ! अपना आपका भीतर का भाव सुधर जायेगा तो बहार की क्रिया व्यवहार का स्वत: ही सुधार हो जायेगा ! यदि सुधर नहीं करोगे तो बड़ी भरी हानि होगी और पछताना पड़ेगा !
सो परत्र दु:ख पावइ सिर धुनि धुनि पछताई ! कालहिकर्महि इस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ !!
(रामचरितमानस ७ ! ४३ )
वह आगे जाकर सिर्फ धुन धुन कर पश्चाताप करेगा और काल, कर्म एवम ईश्वर को मिथ्या दोष लगायेगा !
ईश्वर ने हमको भाव सुधरने के लिये मौका दिया है ! ईश्वर मदद करते हैं, हर एक प्रकार सें मौका देता हैं ! यह मनुष्य शरीर दिया, उन्ही की कृपा सें मनुष्य बनें ! अपने स्वरुप की और ख्याल करें तो बड़ी भरी दुर्दशा होनी चाहीये थी !
कबहुँक करि करुणा नर देहि ! देत ईस बिनु हेतु सनेही ! !
चौरंसी लाख योनियों में यह जीव घुमाता फिरता है, परमात्मा कभी दया कर मनुष्य शरीर देता है !
आकर चारि लच्छ चौरांसी ! जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी !!
जीव को अविनाशी कहा है ! जीव मारता नहीं है, अपितु भ्रमण करके कलेश उठता है ! भ्रमण करना परमत्मा के शरण होने पर बंद होता है, किन्तु बड़ी भरी मूर्खता है. जिसके कारन भ्रमण करते रहता है !
फिरत सदा माया कर प्रेरा ! काल कर्म सुभाव गुण घेरा ! !
बिना शरण हुए ही भगवान की दया है, इसलिये उनका नाम सुहद्र है ! भगवान बिना ही कारण दया और प्रेम करतें हैं ! सुहद्र स्वर सर्वभूतानां ! भगवान की बड़ी भरी दया है कि मनुष्य शरीर मिला ! भगवान को दोष लगना झूठा है !
और काल को भी दोष नहीं दिया जा सकता !
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ! गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहि प्रयास !!
कलियुग का दोष नहिं है क्योंकि भगवान का बिमल यश गाते गाते लोग कलयुग में भी भवसागर से पार हो जाते हैं ! हंसते हंसते भगवान के परमधाम में जातें हैं ! अपने भाग्य का भी दोष नहिं है !
बड़े भाग मानुष तनु पावा ! सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हि गावा !!
हम लोग यदि अपने भाग्य की और देखें तो हर समय हँसना, नाचना, गाना चाहीये ! हमें मनुष्य जीवन मिल गया जिसके लिये देवता लोग भी आकांक्षा करते हैं ! स्थान देखो- क्या गँगा किनारा,शांति,वैराग्यमय ऐसा देश कहीं और देखा सुना है ? विचार करके देखो ! चारों और दृष्टि डालिये स्वाभाविक ही शांति, वैराग्यऔर उपरति होती है, सामने गँगा हर समय दिखती है ! एक और गँगा दूसरी और पहाड़, जंगल है ! माया का कटक किसी भी प्रकार यहाँ आ ही नहिं सकता !
यहाँ सें दूर ही रहता है !
वटवृक्ष की छांया में कहीं भी बैठो, स्वत: ही ध्यान लग जाता है ! ऐसा स्थान कोसों में मिलना नहीं है ! रेणुका का आसन है ! ऐसा तो कोई बिछौना हो ही नहीं सकता ! गँगा की बालू स्पर्श सें ही पवित्र कराती है ! नेत्रों को हर समय गँगा का दर्शन, कानों को ध्वनि भी हर समय गँगा ही की सुनायी पड़ती है ! गँगा की गंध भी कितनी मधुर है, पांचों इन्दिर्यां गंगामय हैं ! गँगा की ध्वनि जैसे वेदों की ध्वनि हो या भगवन की बंशी ध्वनि हो या दूर से भगवान कीर्तन सुनायी देता है !नेत्रों सें दर्शन करके, जिव्हा द्वारा पान करके, नासिका द्वारा गंध लेकर,रेणुका और गनगा का स्पर्श करके पांचों इन्द्रियां गँगा मय हैं ! फिर भगवचर्चा. यह देश जहाँ ऋषियों नें कितने काल तक तपस्या की है ! ऐसा मौका पाकर भी पश्चाताप करने पड़े तो इससे बढ़कर मूर्खता क्या होगी ? सावधान नहीं हुए, नहीं चेते तो पछताना ही पड़ेगा !
जाति सें नीच और पापी का भी उद्धार हो जाता है ! कितने समय में ? क्षिप्रं अर्थात थोड़े समय में इस मनुष्य शरीर सें भगवान के भजन द्वारा अतिशय पापी का भी उद्धार शीघ्र होता है, अन्य किसी शरीर सें नहीं ! ऐसे मौके को पाकर हाथ से जानें न दें ! क्या करें ? भगवान कहतें है भजस्व मां , मेरा भजन कर !
मन्मना भव मद्धक्तो मध्याजी मां नमस्करु !
(गीता ९ / ३४ )
मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन. मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर !
मन्मना----मनको मेरेमें लगा दे--मन को संसार में लगाये हैं !
मद्भक्तो---मेरा भक्त बन------रुपयों के दास हो रहे हैं !
मध्याजी---मेरी पूजा कर---रुपयों के लिये नीचोंकी गुलामी, गुलामी, पूजा करते हैं, खुशामद करते हैं !
मां नम्स्करु----मेरे को नमस्कार कर--नमस्कार भी रुपयों के लिये उन्हीं नीचोंको करते हैं ! कुत्ते-जैसा जीवन हो रहा है, कुत्ते जैसी खुशामद करते हैं ! यदि इन बैटन को छोड़कर भगवान जैसा कहते हैं वैसा करें तो इंद्रकी तो बात ही क्या है भगवान भी
आपके चरणों की धुलको मस्तकपर धारण करें !
मन्मना भवसे भगवान के स्वरुप का ध्यान, मद्भक्त: से भगवानके नाम का जप, मध्याजीसे पूजा और मां नमस्कुरु से नमस्कार---ये चार बातें बतलायी !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में ....
कल समता के विषय में कहा था,समता कसौटी है ! जीतनी अधिक समता है, उतनी ही परमात्मा सें निकटता है ! समता परमात्मा का स्वरुप है ! मेरे मन में एक बहुत मुल्वान बात आयी है ! वह यदि समझ में आ जाय तो बड़ा भारी लाभ है !
यह समय बड़ा मूल्यवान है ! लाख रुपये में भी एक दिन का समय नहीं मिल सकता, न रुदन करने पर,न सिर पटक पर मरने पर ही मिल सकता है ! मनुष्य का सबसे बड़ा मूल्यवान है ! एक क्षण ना घाट सकता है न बढ़ सकता है,इसलिये इसकी सावधानी सें रक्षा करनी चाहीये !
पाया परम पद हाथ से जात गई सो गई अब राख रही सो !
यह मनुष्य शरीर सागर किनारे की नौका है,किनारे आकर नौका डूब जाये तो बड़ी लज्जा की बात है ! इसलिये समय का सदुपयोग कर साधन बढाये ! एक एक मिनट भी लाख रुपये में नहीं मिलाता है ! व्यर्थ समय न बितायें !न व्यर्थ बोलें, न व्यर्थ क्रिया करें ! यदि समय व्यर्थ बित जाये तो पुत्र शोक जैसा शोक मनावे ! जो समय बीत गया, वह किसी प्रकार लौटकर आने वाला नहीं है ! भगवद्विषय को छोड़कर किसी भी काम में समय गया, वह व्यर्थ गया ! यदि व्यर्थ गया तो रोओ,पहले रो लोगे तो अंत में रोना नहीं पड़ेगा !
रुपयों से भी मनुष्य का समय मूल्यवान है ! रुपया किसी काम नहीं आएगा ! संसार में जितने पदार्थ हैं कोई काम नहीं आयेंगे ! शरीर से भी कोई लाभ नहीं होगा यह भी यही, रह जायेगा,इसलिये जल्दी सें जल्दी मनुष्य शरीर से एवम रुपयों से ऊँचे से ऊँचा काम बना लेना चाहीये ! अपना आपका भीतर का भाव सुधर जायेगा तो बहार की क्रिया व्यवहार का स्वत: ही सुधार हो जायेगा ! यदि सुधर नहीं करोगे तो बड़ी भरी हानि होगी और पछताना पड़ेगा !
सो परत्र दु:ख पावइ सिर धुनि धुनि पछताई ! कालहिकर्महि इस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ !!
(रामचरितमानस ७ ! ४३ )
वह आगे जाकर सिर्फ धुन धुन कर पश्चाताप करेगा और काल, कर्म एवम ईश्वर को मिथ्या दोष लगायेगा !
ईश्वर ने हमको भाव सुधरने के लिये मौका दिया है ! ईश्वर मदद करते हैं, हर एक प्रकार सें मौका देता हैं ! यह मनुष्य शरीर दिया, उन्ही की कृपा सें मनुष्य बनें ! अपने स्वरुप की और ख्याल करें तो बड़ी भरी दुर्दशा होनी चाहीये थी !
कबहुँक करि करुणा नर देहि ! देत ईस बिनु हेतु सनेही ! !
चौरंसी लाख योनियों में यह जीव घुमाता फिरता है, परमात्मा कभी दया कर मनुष्य शरीर देता है !
आकर चारि लच्छ चौरांसी ! जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी !!
जीव को अविनाशी कहा है ! जीव मारता नहीं है, अपितु भ्रमण करके कलेश उठता है ! भ्रमण करना परमत्मा के शरण होने पर बंद होता है, किन्तु बड़ी भरी मूर्खता है. जिसके कारन भ्रमण करते रहता है !
फिरत सदा माया कर प्रेरा ! काल कर्म सुभाव गुण घेरा ! !
बिना शरण हुए ही भगवान की दया है, इसलिये उनका नाम सुहद्र है ! भगवान बिना ही कारण दया और प्रेम करतें हैं ! सुहद्र स्वर सर्वभूतानां ! भगवान की बड़ी भरी दया है कि मनुष्य शरीर मिला ! भगवान को दोष लगना झूठा है !
और काल को भी दोष नहीं दिया जा सकता !
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ! गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहि प्रयास !!
कलियुग का दोष नहिं है क्योंकि भगवान का बिमल यश गाते गाते लोग कलयुग में भी भवसागर से पार हो जाते हैं ! हंसते हंसते भगवान के परमधाम में जातें हैं ! अपने भाग्य का भी दोष नहिं है !
बड़े भाग मानुष तनु पावा ! सुर दुर्लभ सब ग्रन्थन्हि गावा !!
हम लोग यदि अपने भाग्य की और देखें तो हर समय हँसना, नाचना, गाना चाहीये ! हमें मनुष्य जीवन मिल गया जिसके लिये देवता लोग भी आकांक्षा करते हैं ! स्थान देखो- क्या गँगा किनारा,शांति,वैराग्यमय ऐसा देश कहीं और देखा सुना है ? विचार करके देखो ! चारों और दृष्टि डालिये स्वाभाविक ही शांति, वैराग्यऔर उपरति होती है, सामने गँगा हर समय दिखती है ! एक और गँगा दूसरी और पहाड़, जंगल है ! माया का कटक किसी भी प्रकार यहाँ आ ही नहिं सकता !
यहाँ सें दूर ही रहता है !
वटवृक्ष की छांया में कहीं भी बैठो, स्वत: ही ध्यान लग जाता है ! ऐसा स्थान कोसों में मिलना नहीं है ! रेणुका का आसन है ! ऐसा तो कोई बिछौना हो ही नहीं सकता ! गँगा की बालू स्पर्श सें ही पवित्र कराती है ! नेत्रों को हर समय गँगा का दर्शन, कानों को ध्वनि भी हर समय गँगा ही की सुनायी पड़ती है ! गँगा की गंध भी कितनी मधुर है, पांचों इन्दिर्यां गंगामय हैं ! गँगा की ध्वनि जैसे वेदों की ध्वनि हो या भगवन की बंशी ध्वनि हो या दूर से भगवान कीर्तन सुनायी देता है !नेत्रों सें दर्शन करके, जिव्हा द्वारा पान करके, नासिका द्वारा गंध लेकर,रेणुका और गनगा का स्पर्श करके पांचों इन्द्रियां गँगा मय हैं ! फिर भगवचर्चा. यह देश जहाँ ऋषियों नें कितने काल तक तपस्या की है ! ऐसा मौका पाकर भी पश्चाताप करने पड़े तो इससे बढ़कर मूर्खता क्या होगी ? सावधान नहीं हुए, नहीं चेते तो पछताना ही पड़ेगा !
जाति सें नीच और पापी का भी उद्धार हो जाता है ! कितने समय में ? क्षिप्रं अर्थात थोड़े समय में इस मनुष्य शरीर सें भगवान के भजन द्वारा अतिशय पापी का भी उद्धार शीघ्र होता है, अन्य किसी शरीर सें नहीं ! ऐसे मौके को पाकर हाथ से जानें न दें ! क्या करें ? भगवान कहतें है भजस्व मां , मेरा भजन कर !
मन्मना भव मद्धक्तो मध्याजी मां नमस्करु !
(गीता ९ / ३४ )
मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन. मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर !
मन्मना----मनको मेरेमें लगा दे--मन को संसार में लगाये हैं !
मद्भक्तो---मेरा भक्त बन------रुपयों के दास हो रहे हैं !
मध्याजी---मेरी पूजा कर---रुपयों के लिये नीचोंकी गुलामी, गुलामी, पूजा करते हैं, खुशामद करते हैं !
मां नम्स्करु----मेरे को नमस्कार कर--नमस्कार भी रुपयों के लिये उन्हीं नीचोंको करते हैं ! कुत्ते-जैसा जीवन हो रहा है, कुत्ते जैसी खुशामद करते हैं ! यदि इन बैटन को छोड़कर भगवान जैसा कहते हैं वैसा करें तो इंद्रकी तो बात ही क्या है भगवान भी
आपके चरणों की धुलको मस्तकपर धारण करें !
मन्मना भवसे भगवान के स्वरुप का ध्यान, मद्भक्त: से भगवानके नाम का जप, मध्याजीसे पूजा और मां नमस्कुरु से नमस्कार---ये चार बातें बतलायी !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में ....