भाव ही प्रधान है, भाव ही सुधरना चाहीये ! भाव ही मूल्यवान वस्तु है ! हर समय उच्च कोटि का भाव रहना चाहीये, फिर देखो भगवान के पास वायु की तरह दौड़ कर पहुँच जाओगे !
एक तो यह भाव की यहाँ माया और माया का कटक आही नहीं सकते- यह दृढ मिश्चय एवम ईश्वर की कृपा है तो फिर और क्या चाहीये ! फिर यह सत्संग भगवचर्चा हमें मिल रही है ! माया का कटक, काम, क्रोध,लोभ आदि किसी समय आक्रमण करे तो भगवन्नाम का उच्चारण करो फिर यह टिक नहीं सकते ! जैसे पुलिस के नाम से चोर डाकू नहीं टिक सकते ! भगवान के नाम का बिगुल बजावो फिर देखो भाग जातें है की नहीं ! आपका निश्चय, भाव जोरदार होना चाहीये और यह भाव भी रखें कि हमारे मन,बुद्धि, इन्द्रियों में, रोम रोम में शांति आनंद एवम ज्ञान कि तृप्ति छाई हुयी है ! ज्ञान एवम प्रकाश कि बड़ी भरी तृप्ति हो रही है ! उससें बड़ी भरी शांति, प्रसन्नता, आनंद प्राप्त हो रहा है ! हर समय शांति,प्रसन्नता में डूबा रहे, जैसे इनकी बाद आ गयी हो !
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ! (गीता २ ! ६५ )
यदि यह बात आप समझ कर धारण कर लें तो चिन्ता, भय, शोक आदि आपके पास आ ही नहीं सकते ! वह बात क्या है ? यह जो कुछह हो रहा है भगवान उनको रूपों में होकर लीला कर रहें हैं ! जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वाल बल बछड़े का रूप धारण करके लीला कि थी, जैसे त्रेतायुग में भगवान श्रीरामचन्द्रजी अनेक रूप में होकर सबसें मिले थे !
भगवान अनेक रूपों में लीला कर रहें हैं ! भगवान को हर समय अपने पास देखो ! भगवान कि दिव्य लीला हो रही है ! हम भी उसमें शामिल होकर लीला कर रहें हैं, इस प्रकार मन का भाव बना लो ! भाव इस प्रकार का करने के बाद पाप ठहर नहीं सकते !
केवल भाव बनाना चाहीये असली वस्तु भाव ही है ! हर समय ईश्वर के भाव सें भावित होते रहो और कोई बात सुने ही नहीं, और कोई बात विचारे ही नहीं ! भगवच्चर्चा सुनें, विचारें -मनन करें ! नेत्रों से हर वस्तु में भगवान को देखें, पत्ते पत्ते में, जर्रे जर्रे में भगवान कास्वरुप दिखे, जैसें गोपियाँ प्रहलाद आदि देखा करते थे !
कोई भी भाव हो भगवान सें संबध जोड़ लें, किसी भी भाव सें उनका चिंतन करें, चिंतन भगवान का होना चाहीये !
वाणी द्वारा कथन, कानों द्वारा सुनना, मन द्वारा मनन सब भगवन्मय हो, साडी इन्द्रियां भगवान में लगा दो ! भाव सुधारो, क्रिया का सुधर स्वत: ही हो जायेगा ! भाव का सुधार ही अन्त:करण का सुधर है ! अन्त:करण का सुधार होने में क्रिया स्वत: ही सुधर जाती है !और क्रिया का सुधार करने सें अन्त:करण का सुधार देर सें होता है, कठिनता सें होता है !
कर्मयोगी निष्काम भाव सें ही लाभ उठाते हैं ! भगवान के भक्त भाव सें ही लाभ उठातें हैं ज्ञानी भी भाव सें ही लाभ उठातें है ! यह सँसार है यह भाव हटाओ ! यह भिन्नता है ! इसको हटाकर यह भाव लाओ यह जो कुछ है भगवान हैं, जो कुछ है वासुदेव ही है !
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपध्य्ते ! वासुदेव: सर्वामिति स महात्मा सुदुर्लभः !!
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है, अर्थात वासुदेव के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं ! इस प्रकार मेरे को भजता है ! वह महात्मा अति दुर्लभ है !
यह मनुष्य का जन्म ही अंतिम जन्म है ! सब प्रकार से देख लो, यह मनुष्य जन्म अंतिम जन्म है ! बहुत जन्मों के साधनों का फल है ! चौरासिं लाख योनियोंके बाद मनुष्य जन्म मिलाता है इसमे साधन करके अपना कम बना ले तो फिर जन्म नहीं होता, अत: यह अन्त का जन्म हुआ ! सब प्रकार से मनुष्य जन्म-अन्त का जन्म है, इससें लाभ उठाना चाहीये ! अन्यथा फिर यह मनुष्य-शरीर मिलने का नहीं है ! यथार्थभाव लावे, पहले तो मान्यता बनावे ! मने कि जो कुछ है भगवान्का स्वरुप है, फिर जब अनुभव होगा, तब यह आड़ टूट जायगी ! जैसे घड़ेकी आड़ टूटनेपर आकाश ही रहता है ! वैसे ही यह आड़ है, अनुभव होने पर आड़ टूट जाती है ! फिर देखो कितनी शान्ति, आनन्दकी प्राप्ति होती है ! फल एक ही है ! वही आनंद वही शान्ति, वही अमृत, वही परम्रस, परमपद सबका एक ही फल है ! कोई भी साधन करो भाव ही प्रधान है ! भाव पवित्र हो तो साडी क्रिया पवित्र होगी ! निष्कामभाव होनेपर और कोई भाव न हो परवा नहीं है, सारी क्रिया पवित्र है !
जिसका फल पवित्र हो, भाव पवित्र हो, निष्काम भाव हो, क्रिया स्वत: ही पवित्र होगी ! भाव बना लो !
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते !! (गीता ५ / १२ )
सकामी पुरुष फलमें आसक्त हुआ कामनाके दवारा बंधता है ! इसलिये निष्काम कर्मयोग उत्तम है !
जैसे कर्मोंमें भाव प्रधान है, वैसे ही भक्तिमें भी भाव प्रधान है ! प्रेमभाव, दास्यभाव, चाहे जो भाव हो, भगवान् करायें, वैसे करे ! उनकी आज्ञा का पालन करे या सारी क्रियाको लीलामय देखे ! हम भी शामिल होकर लीला कर रहे हैं ! सारी क्रिया प्रेम भावसे हो,फिर भगवान् छिप नहीं सकते !
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना ! प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना !!
प्रेममय हो जाय, फिर भगवान् छिपे नहीं रह सकते, प्रेम को बढावें और फिर देखें आप प्रेममय हो जायँगे !
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक भगवत्प्राप्ति कैसे हो ? श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १७४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]शेष अगले ब्लॉग में ....