※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

सत्संग की मार्मिक बातें


घर में त्याग का व्यवहार एवं अतिथि सेवा की महिमा से

      अग्निकी चिंगारियाँ जैसे उड़ती है, उसी तरह सब क्रोध के वशीभूत हो जाते हैं !जब आग लग गयी अर्थात क्रोध उत्पन्न हुआ तो आग बुझाने के लिये धुल और जल डालते हैं,इसी तरह क्रोध हो तो धुल,जल डालना चाहीये ! धुल जल डालने से क्रोध तो बढ़ेगा ही,परन्तु क्रोध के लायक ही धुल, जल डालना चाहीये ! अन्तमें कहते हैं कि जो कुछ हुआ धुल दो !

       जल क्या है ? शान्ति के वचन ही जल है ! शान्ति के वचन बोलना चाहीये ! उसकी बात स्वीकार कर ले, उसके अनुकूल वचन कहे ! इससे वह शांत हो जाता है ! ऐसा भी कोई उपाय है, जिससे क्रोध हो ही नहीं ? ऐसा उपाय ईश्वरका भजन है ! जिस समय क्रोध होता है
उस समय क्या ईश्वर कि भक्ति सुहाती है ? ईश्वर का भक्त होता है उसके तो क्रोध आता ही नहीं ! तुलसीदासजी कहते हैं------
बसहि भगति मनि जेहि उर माहीं ! खल कामादि निकट नहीं जाहीं !!

          बात तो हम भी पढतें हैं, परन्तु क्रोध तो हमारे भी आता है ! भगवान् कहते हैं नहीं आना चाहीये ! अच्छा आप ईश्वर के भक्त है क्या ? हाँ थोड़े बहुत तो हैं ही ! तो थोडा आता होगा ! पूरा भक्त होता है उसें बिलकुल क्रोध नहीं आता ! भगवान् के भक्त तो भगवान् के विधान में संतोष करते हैं ! अपने प्रारब्ध का भोग तिन प्रकार से होता है ! स्वेच्छा से, परेच्छा और अनिच्छा ! स्वेच्छा से जो कार्य किया जाता है उसको स्वेच्छा प्रारब्ध कहते है ! यदि भूकंप हो जाय तो उसको अनिच्छा प्रारब्ध कहते हैं ! भगवान् ने ही तो दिया ! इसी प्रकार कोई गाली देता है ! यह क्यों हो रहा है ? हमारे पाप का ही फल भुगताया जा रहा है ! कौन भुगताता है ? भगवान् ! भगवान् का भक्त क्या क्रोध करेगा ? हमारे मन के प्रतिकूल जो कार्यवाही होती है, वह हमारे प्रारब्ध का फल तथा भगवान् का विधान है ! मनके विपरीत में क्रोध होता है ! मनके विपरीत होता है, किन्तु वह ईश्वर का विधान हमारे कर्मों का फल है ! क्रोध का कार्य बन जाय तो भी क्रोध नहीं करना चाहीये ! यदि रोयेंगे तो क्या लाभ होगा ! भगवान् समझेंगे इसको मेरा विश्वास नहीं है ! यह बात हमारे समझ में आ जाय तो हमें क्रोध नहीं आ सकता ! अपने तो क्रोध करें ही नहीं ! दूसरे को हो तो भी अपना अपराध ही माने !उससे क्षमा माँगनी चाहीये ! कहे आपको क्रोध आया है, यह मेरा ही अपराध है ! भगवान् के भक्त तो अपना अपराध मानते हैं ! अपने को क्रोध आता है, तब भी अपना ही दोष स्वीकार करते हैं ! भगवान् कहते हैं-----
   संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय: ! मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: !!
                                                              (गीता १२/१४)

        जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीरको वश मे किये हुए है और मुझमें दीर्ध निश्चयवाला है---वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है !

   यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ! हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: !!
                                                                                               (गीता १२/१५)
   जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता, तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय, और उद्वेगादि रहित है----वह भक्त मुझको प्रिय है !
  ऐसा जो प्रुरुष है, वह मेरा प्रेमी है ! दूसरे को क्रोध आता है, उसमें मैं ही हेतु हूँ, यह समझना चाहीये ! मुझको क्रोध आ गया तो यह समझना चाहीये कि  हमें भगवान् में विश्वास कहाँ है ? योगी तो हर समय संतुष्ट रहता है ! यदि हर समय सन्तोष नहीं तो तुम कैसे भक्त हुए ? भगवान् का भक्त समझता है कि जो कुछ भी हमारे प्रतिकूल होता है, हमारे पापों का फल है, ईश्वर भुगता रहे हैं ताकि भविष्य में हम इस तरह न करें ! हमको दंण्ड मिल रहा है, यह हमारे ही अपराधों का फल है ! भोगना तो मूर्खों को भी पड़ता है. वे रोकर भोगते हैं ! हम भक्त हैं, इसलिये हँसते हुए भोगना चाहीये !


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
[ पुस्तक सत्संगकी मार्मिक बातें  ! श्रीजयदयालजी गोयन्दका,कोड १२८३ A ,गीता प्रेस गोरखपुर ]